Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१०.] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ५६. बहिरंगुवजोगसण्णिददुसत्तीजुत्तो अप्पा इच्छिदव्यो ।
( जं सामण्णग्गहणं भावाणं णेव कडे आयारं ।
अविसेसिदूग अत्थे दंसणमिदि भण्णदे समए ॥ १९ ॥ ण च एदेण सुत्तेणेदं वक्खाणं विरुज्झदे, अप्पत्थम्मि पउत्तसामण्णसद्दग्गहणादो । ण च जीवस्स सामण्णत्तमसिद्धं णियमेण विणा विसईकयत्तिकालगोयराणंतत्थ-वेंजणपज्जवचियवझंतरंगाणं तत्थ सामण्णत्ताविरोहादो। होदु णाम सामण्णेण सणस्स सिद्धी केवलदंसणस्स सिद्धी च, ण सेसदसणाणं;
चक्रवण जं पयासदि दिरसदि तं चक्खुदंसणं वेति । दिट्ठस्स य ज सरणं णायव्वं तं अचक्षु त्ती ॥ २० ॥ परमाणुआदियाइं अंतिमखंधं ति मुत्तिदव्याई ।
तं ओहिदंसणं पुण जं पस्सदि ताणि पच्चक्खं ॥ २१ ॥ इदि बज्झत्थविसयदसणपरूवणादो ? ण, एदाणं गाहाणं परमत्थत्थाणुवगमादो ।
दो शक्तियोंसे युक्त मानना अभीष्ट सिद्ध होता है । ऐसा मानने पर
वस्तुओंका आकार न करके व पदार्थों में विशेषता न करके जो वस्तु-सामान्यका ग्रहण किया जाता है उसे ही शास्त्र में दर्शन कहा है ॥ १९ ॥
इस सूत्रसे प्रस्तुत व्याख्यान विरूद्ध भी नहीं पड़ता, क्योंकि, उक्त सूत्रमें 'सामान्य' शब्द का प्रयोग आत्म-पदार्थके लिये ही किया गया है। ( इसीके विशेष प्रतिपादन के लिये देखो षट्खंडागम, जीवट्ठाण, सत्प्ररूपणा, भाग १, पृष्ट १४७३ जीवका सामान्यत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, नियमके विना ज्ञानके विषयभूत किये गये त्रिकालगोचर अनन्त अर्थ और व्यंजन पर्यायसे संचित बहिरंग और अन्तरंग पदार्थों का जीवमें सामान्यत्व मानने में कोई विरोध नहीं आता।
__ शंका-इस प्रकार सामान्यसे दर्शनकी सिद्धि और केवलदर्शनकी भी सिद्धि भले हो जाय, किन्तु उससे शेष दर्शनोंकी सिद्धि नहीं होती, क्योंकि
जो चक्षुइन्द्रियोंको प्रकाशित होता है या दिखता है उसे चक्षुदर्शन समझा जाता है, और जो अन्य इन्द्रियोंसे देखे हुए पदार्थका ज्ञान होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिये ॥२०॥
परमाणुसे लेकर अन्तिम स्कंध तक जितने मूर्तिक द्रव्य हैं उन्हें जो प्रत्यक्ष देखता है वह अवधिदर्शन है ॥२१॥
इन सूत्रवचनों में दर्शनकी प्ररूपणा बाह्याविषयक रूपसे की गई है ? समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि, तुमने इन गाथाओंका परमार्थ नहीं समझा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org