Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१०६ ]
॥ ६४ ॥
छक्खंडागमे खुदागंधो
खइयाए ली || ६३ ॥
लेस्साए कारणकम्माणं खएणुप्पण्णजीवपरिणामो खइया लद्धी, तीए अलेस्सिओ होदित्ति उत्त होदि । ण सरीरणामकम्मसंतस्स अस्थित्तं पडुच्च खइयत्तं विरुज्झदे, तस्स तंततावाद ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिओ अभवसिद्धिओ णाम कथं भवदि ?
सुगममेदं ।
पारिणामिण भावेण ॥ ६५ ॥
[ २, १, ६३.
एदं पि सुगमं ।
णेव भवसिद्धिओ व अभवसिद्धिओ णाम कथं भवदि ? ॥ ६६ ॥ एदं पि सुगमं ।
खइयाए लडीए ॥ ६७ ॥
सुगममेदं ।
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क्षायिक लब्धिसे जीव अलेश्यिक होता है ॥ ६३ ॥
लेश्या कारणभूत कर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुए जीव-परिणामको क्षायिक लब्धि कहते हैं; उसी क्षायिक लब्धिसे जीव अलेश्यिक होता है यह सूनका तात्पर्य है | शरीरनामकर्मकी सत्ताका होना क्षायिकत्वके विरुद्ध नहीं है, क्योंकि क्षायिक भाव शरीरनामकर्मके अधीन नहीं है ।
भव्यमार्गणानुसार जीव भव्यसिद्धिक व अभव्यसिद्धिक कैसे होता है ? || ६४॥ यह सूत्र सुगम है ।
पारिणामिक भावसे जीव भव्यसिद्धिक व अभव्यसिद्धिक होता है ।। ६५ ।। यह सूत्र भी सुगम है ।
जीव न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक कैसे होता है ? ॥ ६६ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
क्षायिक लब्धिसे जीव न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक होता है ।। ६७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
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