Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, १, ६२.] सामित्ताणुगमे लेस्सामग्गणा
[१०५ खीणकसायाणं लेस्साभावो पसज्जदे ? सच्चमेदं जदि कसाओदयादो चेव लेस्सुप्पत्ती इच्छिज्जदि । किंतु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबंधाणमित्तत्तादो । तेण कसाए फिट्टे वि जोगो अस्थि त्ति खीणकसायाणं लेस्सत्तं ण विरुज्झदे । जदि बंधकारणाणं लेस्सत्तं उच्चदि तो पमादस्स वि लेस्सत्तं किण्ण इच्छि. अदि ? ण, तस्स कसाएसु अंतब्भावादो । असंजमस्स किण्ण इच्छिज्जदि १ ण, तस्स वि लेस्सायम्मे अंतभावादो । मिच्छत्तस्स किण्ण इच्छिज्जदि ? होदु तस्स लेस्साववएसो, विरोहाभावादो । किंतु कसायाणं चेव एत्थ पहाणत्तं हिंसादिलेस्सायम्मकारणादो, सेसेसु तदभावादो।
अलेस्सिओ णाम कधं भवदि ? ॥ ६२॥ एत्थ वि णिक्खेवमस्सिदूण परूवणा कादवा ।
बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणकषाय जीवोंके लेझ्याके अभावका प्रसंग आता है ?
समाधान-सचमुच ही क्षीणकषाय जीवोंमें लेश्याके अभावका प्रसंग आता यदि केवल कषायोदयसे ही लेश्याकी उत्पत्ति मानी जाती। किन्तु शरीरनाम
के उदयसे उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि, वह भी कर्मके बन्धमें निमित्त होता है । इस कारण कपायके नष्ट हो जानेपर भी चूंकि योग रहता है इसीलिये क्षीणकषाय जीवोंके लेश्या मानने में कोई विरोध नहीं आता।
शंका-यदि बन्धके कारणोंको ही लेश्याभाव कहा जाता है तो प्रमादको भी लेश्याभाव क्यों न मान लिया जाय ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रमादका तो कषायोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है ? शंका-असंयमको भी लेश्याभाव क्यों नहीं मानते ? । समाधान नहीं, क्योंकि असंयमका भी तो लेश्याकर्ममें अन्तर्भाव हो जाता है। शंका-मिथ्यात्वको लेश्याभाव क्यों नहीं मानते ?
समाधान-मिथ्यात्वको लेश्या कह सकते हैं, क्योंकि, उसमें कोई विरोध नहीं आता । किन्तु यहां कषायोंका ही प्राधान्य है, क्योंकि कषाय ही लेश्याकर्मके कारण हैं और अन्य बन्धकारणोंमें उसका अभाव है।
जीव अलेश्यिक कैसे होता है ? ॥ १२ ॥ यहां भी निक्षेपके आश्रयसे प्ररूपणा करना चाहिये ।
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