Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, १, ४६. ] सामित्ताणुगमे णाणमग्गणा
[८९ भावेण होदि, सव्वजीवाणं केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो। णोदइएण, केवलणाणपडिबंधिकम्मोदयस्स तदुप्पायणविरोहादो । णोवसमियं, णाणावरणस्स मोहणीयस्सेवुवसमाभावा । ण खओवसमियं, असहायस्स करण-क्कम-व्यवहाणादीदस्स खओवसमियत्तविरोहादो । सव्वं पि णाणं केवलणाणमेव आवरणविगमवसेण तत्तो विणिग्गयणाणकणाणमुवलंभादो । ण च एसो णाणकणो केवलणाणादो अण्णो, जीवे पंचण्हं णाणाणमभावादो । तेसिमभावो कुदोवगम्मदे ? केवलणाणेण तिकालगोयरासेसदव्व-पज्जयविसएणाक्कमेण इंदियालोआदिसहेज्जाणवेक्खेण सुहुम-दूर-समिवादिविग्घसंघुम्मुक्केणक्कंतासेसजीवपदेसेसु सक्कम-ससहेज्ज-सपडिवक्ख-परिमिय-अविसदणाणाणमत्थित्तविरोहादो । किं च ण केवलणाणेण अवगयत्थे सेसणाणाणं पवुत्ती, विसदाविसदाणमेक्कत्थेक्ककालम्मि पवुत्तीविरोहादो, अवगदावगमे फलाभावादो च । णाणवगदे वि पवुत्ती तदणवगदत्थाभावादो। तदो
क्योंकि, यदि ऐसा होता तो सभी जीवोंके केवलज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग आजाता। औदयिक भावसे भी केवलज्ञान नहीं होता, क्योंकि, केवलज्ञानके प्रतिबंधक कर्मोदयसे उसकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। केवलज्ञान औपशमिक भी नहीं है, क्योंकि, मोहनीयके समान ज्ञानावरणका तो उपशम ही नहीं होता।
केवलज्ञान क्षायोपशामिक भी नहीं है, क्योंकि असहाय और करण, क्रम एवं व्यवधानसे रहित ज्ञानको क्षायोपशमिक मानने में विरोध आता है। यहां शंका होती है कि समस्त ज्ञान केवलज्ञान ही हैं, क्योंकि, आवरणके दूर हो जानेसे उसीसे निकलने वाले ज्ञानकण पाये जाते हैं। यह ज्ञानकण केवलज्ञानसे भिन्न नहीं हैं, क्योंकि, जीवमें पांच ज्ञानोंका अभाव पाया जाता है। यदि कहा जाय कि जीवमें पांच शानोंका अभाव है, यह कहांसे जाना जाता है ? तो इसका समाधान है कि केवलज्ञान होता है त्रिकालगोचर, समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायोंको विषय करनेवाला, अक्रममावी, इन्द्रियालोकादि साधनोंसे निरपेक्ष, और सूक्ष्म, दूर, समीप (?) आदि विघ्न समूहसे मुक्त । ऐसे केवलज्ञानसे जीवके जो समस्त प्रदेश व्याप्त हैं उनमें क्रसभात्री, साधनसापेक्ष, सप्रतिपक्ष, परिमित और अविशद मति आदि शालोंका अस्तित्त्व माननेमें विरोध आता है ? और केवलज्ञानसे पदार्थों के जान लेनेपर शेषज्ञानोंकी प्रवृत्ति भी नहीं होती, क्योंकि, विशद और अविशद ज्ञानोंकी एकत्र एक कालमें प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है और जाने हुए पदार्थको पुनः जानने में कोई फल भी नहीं है। मति आदि शानोंकी प्रवृत्ति केवलज्ञानसे न जाने हुए पदार्थों में होती है, ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि, केवलज्ञानसे न जाना
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