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श्री संवेगरंगशाला
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सहन करके, वहाँ से आयुष्यपूर्ण कर तू इस भरत क्षेत्र के अन्दर राजगृह नगर में भिखारी के कुल में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ है, वहाँ भी अनेक रोग से व्याप्त शरीर वाला था, समयोचित भोजन, औषध और स्वजनों से भी रहित अत्यन्त दीनमन वाला, भिक्षा वृत्ति से जीने वाला तूने यौवन अवस्था प्राप्त की, तब भी अत्यन्त दु:खी था, तू बार-बार चिन्तन करने लगा कि मेरे जीवन को धिक्कार हो क्योंकि मनुष्यपने में समान होने पर भी और इन्द्रियाँ भी तुल्य होने पर भी मैं भिक्षा से जीता हूँ और ये धन्य पुरुष अति विलास करते हैं। कई तो ऐसा शोक करते हैं कि-अरे ! आज हमने कुछ भी दान नहीं दिया, तब मैं तो कलेश करता हूँ कि आज कुछ भी नहीं मिला। कई धर्म के लिए अपनी विपूल लक्ष्मी का त्याग करते हैं जबकि मेरे द्वारा कई स्थान पर खण्डित हुआ भी खप्पर नहीं छोड़ता हूँ, कई विवाहित श्रेष्ठ युवतियाँ होने पर भी उसके सामने नजर भी नहीं करते, तब मैं तो केवल संकल्प रूप में ही प्राप्त हुई स्त्रियों में सन्तोष-हर्ष धारण करता हूं अर्थात् स्त्री के सुख को स्वप्न में सेवन करता है। कई उत्तम सुवर्ण जैसी कान्ति वाली भी काया को अशुचिमय मानते हैं, जबकि मैं रोग से पराभूत अपनी काया की प्रशंसा करता हूँ। कई भाट लोग 'जय हो, चिरम् जीवों, कल्याण हो' ऐसी विविध स्तुति करते हैं, तब भिक्षा के लिए गया हुआ मैं तो कारण बिना भी आक्रोश-तिरस्कार को प्राप्त करता हूँ। कई मनुष्य कठोर शब्द बोलते हैं, फिर भी सुनने वाले मनुष्य उससे संतोष मानते हैं और मैं आर्शीवाद देने पर भी लोग मेरा गला हाथ से पकड़ कर निकाल देते हैं, इससे कठोर पाप का भंडार, तुच्छ प्रवृत्ति वाला और रोग से पराभूत मुझे संयम लेना ही अच्छा है, क्योंकि उसमें भी कार्य यही करने का है। जैसे कि-साधु जीवन में मलीन शरीर वाला रहना, भिक्षा वृत्ति करना, भूमिशयन, पराये मकान में रहना, हमेशा सर्दी, धूप, सहन करना और अपरिग्रही जीवन, क्षमा, परपीड़ा का त्याग, दुर्बल शरीर होता है । यह सारा जन्म से लेकर ही मेरा स्वभाव सिद्ध है, और ऐसा जीवन तो साधु को परम शोभाकारक होता है, गृहस्थ को नहीं होता है। यह सत्य है कि योग्य स्थान पर प्राप्त हुए दोष भी गुण रूप बनता है । ऐसा विचार करके परम वैराग्य को धारण करते तूने तापस दीक्षा ली और दूष्कर तपस्या करने लगा। फिर अन्तकाल में मरकर तू जम्बू द्वीप के अन्दर भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत के ऊपर स्थनुपुर चक्रवाल नामक नगर में चंडगति नाम से उत्तम विद्याधर की विद्युन्मती नाम की पत्नी के गर्भ में पुत्ररूप उत्पन्न हुआ। तेरा उचित समय में जन्म हुआ और तेरा वनवेग नाम रखा, फिर अत्यन्त सुन्दर रूप युक्त शरीर वाला तू