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'यशोभारती जैन प्रकाशन ग्रन्थमाला' की ओर से प्रकाशित होने वाली यह पांचवीं कृति है। 'काव्य-प्रकाश' एक ग्रन्थ-मरिण
'काव्य-प्रकाश' (अपर नाम 'साहित्य-सूत्र' ) काव्यशास्त्र की श्रेणी में ग्रन्थमणि' माना जाता है । इस ग्रन्थ की रचना इतना अधिक अर्थगम्भीर तथा सूक्ष्म रहस्यों से पूर्ण है कि इसकी थाह प्राप्त करने के लिये समय-समय पर उत्पन्न अनेक विद्वानों ने विविध टीकारों के द्वारा इसकी अर्थपूर्णता एवं इसकी महत्त्वपूर्ण विलक्षण वैशिष्टय की गहनता को मापने के निरन्तर प्रयत्न किये हैं । इस ग्रन्थ पर निर्मित ७० से अधिक टीकाएं इसका प्रबल प्रमाण हैं । इतने अधिक विवरण और टीकाएँ बन जाने पर भी इस विषय के पारङ्गत विद्वानों के मन में भाज भी यह ग्रन्थ दुर्गम बना हुआ है। यही कारण है कि समय-समय पर किसी न किसी सर्जक विद्वान् का हृदय काव्यप्रकाश के क्षेत्र को परिमार्जित तथा परिषिक्त करने के लिए उत्कण्ठित हुए बिना नहीं रहता। इस ग्रन्थ पर केवल संस्कृत टीकाएँ ही हैं, ऐसा भी नहीं है; विविध प्रदेशों की अन्य अनेक भाषाओं में भी इसके भाषान्तर-अनुवाद हुए हैं तथा हो रहे हैं। काव्य-प्रकाश की सर्वमान्य विशेषताएँ
_ 'काव्यप्रकाश' का यह सार्वभौम महत्त्व उसकी अनेक विशिष्टताओं के कारण अपने माप उभर पाया है। ये विशेषताएँ क्या हैं इसका यदि संक्षेप में उल्लेख किया जाए तो वह इस रूप में किया जा सकता है
१. काव्यसम्बन्धी प्राचीन काल से प्रवृत्त मान्यताओं का दृढता-पूर्वक विश्लेषण । २. स्वसमय तक निर्धारित विषयों का सूक्ष्मता से निरीक्षण और परीक्षण । ३. सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रानन्दवर्धन द्वारा प्रस्थापित तीसरी शब्दशक्ति 'व्यञ्जना' की पुष्टि करते हुए
ध्वनि की प्रस्थापना । ध्वनि सिद्धान्त के विरोधी वैयाकरण, साहित्यिक, वेदान्ती, मीमांसक और
नैयायिकों द्वारा उठायी गई आपत्तियों का प्रबल युक्तियों द्वारा खण्डन । ४. वैयाकरण गार्ग्य, यास्क, पाणिनि आदि प्राचार्यों द्वारा उपमा के लक्षण तथा अलङ्कार-शास्त्र
के कतिपय नियमों का व्यवस्थित प्रतिष्ठापन। ५. भरतमुनि से लेकर भोजराज तक लगभग १२०० वर्षों के समय में चर्चित अलङ्कार-शास्त्र के व्यापक विषयों का स्वतन्त्र मन्थन कर 'नवनीत' के रूप में उपस्थापित सारभूत विवेचन, अलं
कारों का यथार्थ मूल्यांकन, काव्यलक्षण, शब्दशक्ति, ध्वनि, रस-सूत्रगत अर्थ का निष्कर्ष, दोष, १. काव्याचार्य भामह, दण्डी, उद्भट, वामन तथा रुद्रट आदि विद्वानों ने जिन काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों की रचना की है, वे
सभी पद्य में रचित हैं तथापि उन्हें 'सूत्र' नाम दिया गया है मम्मट ने तो नया मार्ग स्वीकृत कर गम्भीरार्थक कारिका एवं वृत्ति में सूत्रपद्धति से ही ग्रन्थ -रचना की है। अत: इसके लिये 'सूत्र' शब्द का प्रयोग किया गया है।
तथा इसके अनेक टीकाकारों ने भी इस ग्रन्थ के लिए 'सूत्र' शब्द का ही प्रयोग किया है। २. म० म० गोकुलनाथ उपाध्याय में लिखा है कि
मन्थान-मन्दर-गिरि-भ्रमण-प्रयत्नाद् रत्नानि कानिचन केनचिदुद्धतानि । नन्वस्मि साम्प्रतमपार-पयोधिपूर-गर्भावटस्थगित एष गरणो मणीनाम् ॥
-काव्यप्रकाश टीका विवरण, ३०४ प्रथम पद्य