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हैं। उपाध्यायजी की कृतियों का पूर्ण योग्यतापूर्वक पूरे परिश्रम के साथ अध्ययन किया जाए, तो जैन आगम अथवा जैनतर्क का सम्पूर्ण ज्ञाता बना जा सकता है। अनेकविध विषयों पर मूल्यवान् अति महत्त्वपूर्ण सैकड़ों कृतियों के सर्जक इस देश में बहुत कम हुए हैं उनमें उपाध्याय जी का निःशङ्क समावेश होता है। ऐसी विरल शक्ति और पुण्यशीलता किसी-किसी के ही भाग्य में लिखी होती है। यह शक्ति वस्तुतः सद्गुरुकृपा, सरस्वती का वरदान तथा अनवरत स्वाध्याय इस त्रिवेणी-सङ्गम की आभारी है।
उपाध्याय जी 'अवधानकार' अर्थात् बुद्धि की धारणा शक्ति के चमत्कारी भी थे।' अहमदाबाद के श्रीसंघ के समक्ष और दूसरी बार अहमदाबाद के मुसलमान सूबे की राज्यसभा में आपने अवधान के प्रयोग करके दिखलाये थे। उन्हें देखकर सभी आश्चर्य मुग्ध बन गए थे। मानव की बुद्धि-शक्ति का अद्भुत परिचय देकर जैन-धर्म और जैन साधु का असाधारण गौरव बढ़ाया था। उनकी शिष्य-सम्पत्ति अल्प ही थी। अनेक विषयों के तलस्पर्शी विद्वान् होते हुए भी 'नव्य-न्याय' को ऐसा आत्मसात् किया था कि वे 'नव्यन्याय के अवतार' माने जाते थे। इसी कारण वे 'तार्किक-शिरोमणि' के रूप में विख्यात हो गए थे। जनसंघ में नव्यन्याय में आप अनन्य विद्वान् थे। जैनसिद्धान्त और उनके त्यागवैराग्य-प्रधान आचारों को नव्यन्याय के माध्यम से तर्कबद्ध करनेवाले एकमात्र अद्वितीय उपाध्यायजी ही थे। उनका अवसान गुजरात के बड़ौदा शहर से १६ मील दूर स्थित प्राचीन दर्भावती, वर्तमान डभोई शहर में वि० सं० १७४३ में हा था। ग्राज उनके देहान्त की भूमि पर एक भव्य स्मारक बनाया गया है जहाँ उनकी वि० सं. १६४५ में प्रतिष्ठा की हई पादुकाएँ पधराई गई हैं । डभोई इस दृष्टि से सौभाग्यशाली है। इस प्रकार संक्षेप में यहाँ उपाध्याय जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व को छूनेवाली घटनाओं की संक्षेप में सच्ची झाँकी कराई गई है।"
इस प्रसंग में आपकी स्मृति-तीव्रता के दो प्रसंग भी बहुचर्चित हैं । जो इस प्रकार हैं
१. बचपन में जसवन्त कुमार जब अपनी माता के साथ उपाश्रय में साधु महाराज को वन्दन करने जाता था,
उस समय उनकी माता ने चातुर्मास में प्रतिदिन 'भक्तामर स्तोत्र' सुनकर ही भोजन बनाने और खाने का नियम लिया था। एक दिन वर्षा इतनी आई कि रुकने का नाम ही नहीं लेती थी। ऐसी स्थिति में माता सोभागदे ने भोजन नहीं बनाया। मध्याह्न का समय भी बीतता जा रहा था। तब बालक जसवन्त ने माता से पूछा कि आज भोजन क्यों नहीं बनाया जा रहा है तो उत्तर मिला-'वर्षा के न रुकने से उपाश्रय में जाकर भक्तामर-सुनने का नियम पूरा नहीं हो रहा है। अतः रसोई नहीं बनाई गयी।' यह सुन जसवन्त ने कहा-मैं आपके साथ प्रतिदिन वह स्तोत्र सुनता था अतः वह मुझे याद है ऐसा कह कर वह स्तोत्र
यथावत् सुना दिया। इस प्रकार बाल्यावस्था में ही उनकी स्मृति तीव्र थी। २. एक बार वाराणसी में जब अध्ययन पूर्ति पर था और पू० यशोविजयजी ने वाद में विजय प्राप्त कर ली थी तब अध्यापक महोदय अपने पास पाण्डुलिपि के रूप में सुरक्षित एक न्यायग्रन्थ को पढ़ाने में संकोच करने लगे। वे यह समझते थे कि यदि यह ग्रन्थ भी पढ़ा दिया तो मेरे पास क्या रहेगा? उपाध्याय जी इस रहस्य को समझ गये थे। अतः एक दिन वह ग्रन्थ देखने के लिए विनयपूर्वक मांग लिया और मिलने पर रात्रि में स्वयं तथा अपने अन्य सहपाठी मुनिवर ने उस पूरे ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके प्रातः लौटा दिया। कहा जाता है कि उस ग्रन्थ में प्रायः १० हजार श्लोकप्रमाण जितना विषय निबद्ध था। यह भी उनकी धारणा-शक्ति का अपूर्व उदाहरण है। -सम्पादक