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आज भी श्रीसंघ में किसी भी बात पर विवाद उत्पन्न होता है तो उपाध्यायजी द्वारा रचित शास्त्र प्रथवा टीका के 'प्रमाण' को अन्तिम प्रमाण माना जाता है। उपाध्यायजी का निर्णय कि मानो सर्वज्ञ का निर्णय । इसीलिए इनके समकालीन मुनिवरों ने आपको 'श्रुतकेबली' ऐसे विशेषण से सम्बोधित किया है। श्रुतकेवली का अर्थ है 'शास्त्रों के वंश अर्थात् श्रुत के बल में केवली के समान इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ के समान पदार्थ के स्वरूप का स्पष्ट वर्णन कर सकनेवाले ।
ऐसे उपाध्याय भगवान् को बाल्यावस्था में ( प्राय: आठ वर्ष के निकट) दीक्षित होकर विद्या प्राप्त करने के लिए गुजरात में उच्चकोटि के विद्वानों के प्रभाव तथा धन्य किसी भी कारण से गुजरात छोड़कर दूर सुदूर अपने गुरुदेव के साथ काशी के विद्याधाम में जाना पड़ा और वहाँ उन्होंने छहों दर्शनों तथा विद्याज्ञान की विविध शाखा - प्रशाखानों का आमूलचूल अभ्यास किया तथा उस पर उन्होंने प्रद्भुत प्रभुत्व प्राप्त किया एवं विद्वानों में 'षड्दर्शनवेत्ता' के रूप में विख्यात हो गए ।
काशी की राजसभा में एक महान् समर्थ दिग्गज विद्वान्, जो कि अजैन था, उसके साथ अनेक विद्वान् तथा अधिकारी वर्ग की उपस्थिति में प्रचण्ड शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला पहनी थी। पूज्य उपाध्यायजी के प्रगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर काशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' विरुद से अलंकृत किया था। उस समय जैन संस्कृति के एक ज्योतिर्धर ने जैन प्रजा के एक सपूत ने जैनधर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार करवाया था तथा जैन शासन की शान बढ़ाई थी ।
ऐसे विविध वाङ्मय के पारङ्गत विद्वान् को देखते हुए आज की दृष्टि से उन्हें दो-चार नहीं, अपितु अनेक विषयों के पी-एच० डी० कहें तो भी अनुचित न होगा ।
भाषा ज्ञान एवं प्रन्थ रचना
भाषा की दृष्टि से देखें तो उपाध्यायजी ने अल्पज्ञ अथवा विशेषज्ञ, बालक अथवा पण्डित, साक्षर अथवा निरक्षर, साधु अथवा संसारी सभी व्यक्तियों के ज्ञानार्जन की सुलभता के लिए जैनधर्म की मूलभूत प्राकृतभाषा में, उस समय की राष्ट्रीय जैसी मानी जानेवाली संस्कृत भाषा में तथा हिन्दी और गुजराती भाषा में विपुल साहित्य का सर्जन किया है । उपाध्यायजी की वारणी सर्वनयसम्मत मानी जाती है अर्थात् वह सभी नयों की अपेक्षा से गर्भित है ।
विषय की दृष्टि से देखें तो आापने श्रागम, तर्क, न्याय, अनेकान्तवाद, तत्वज्ञान, साहित्य, अलङ्कार, छन्द, योग, अध्यात्म, आचार, चारित्र, उपदेश आदि अनेक विषयों पर मार्मिक तथा महत्त्वपूर्ण पद्धति से लिखा है ।
संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो उपाध्याय जी की कृतियों की संख्या 'अनेक' शब्दों से नहीं अपि तु 'संकड़ों' शब्दों से बताई जा सके इतनी है। ये कृतियाँ बहुधा प्रागमिक और तार्किक दोनों प्रकार की हैं। इनमें कुछ पूर्ण तथा कुछ अपूर्ण दोनों प्रकार की हैं तथा कितनी ही कृतियाँ अनुपलब्ध हैं। स्वयं श्वेताम्बर - परम्परा के होते हुए भी दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ पर टोका लिखी है। जैन मुनिराज होने पर भी अर्जन ग्रन्थों पर टीकाएँ लिख सके हैं । यह आपके सर्वग्राही
पाण्डित्य का प्रखर प्रमाण है।
दशैली की दृष्टि से यदि हम देखते हैं तो आापकी कृतियाँ लण्डनात्मक प्रतिपादनात्मक और समन्वयात्मक
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