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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
चार समवसरण-अक्रियावादी (180), क्रियावादी (84), अज्ञानवादी (67) और विनयवादी (32) में बंटे हुए थे (I. समवायांग, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र 90, नंदी, 5.82, II. सूत्रकृतांगनियुक्ति, 12.4 (112), III. कषायपाहुड, जयधवला, गाथा-66, IV. गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, 876 [3])। ऐसा जैन आगम और उसके व्याख्या साहित्य से ज्ञात होता है। उनमें से प्रमुख रूप से पंचभूतवाद, तज्जीव-तच्छरीरवाद, एकात्मवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, क्षणिकवाद (पंचस्कन्ध तथा चतुर्धातुवाद के अन्तर्गत) तथा नियतिवाद आदि प्रमुख मतवाद थे।
सूत्रकृतांग में श्रमण ब्राह्मण मतों का भी उल्लेख मिलता है। जैसे1. वैदेही नमि, 2. रामगुप्त, 3. बाहुक, 4. तारागण, 5. असित देवल, 6. द्वैपायन, 7. पाराशर (सूत्रकृतांग, I.3.4.62-64 [4])। ऋषिभाषित (3री ई. शताब्दी) में पैंतालीस ऋषियों-1. देवनारद, 2. वज्जीपुत्र (वात्सीपुत्र), 3. असित देवल, 4. अंगिरस, भारद्वाज, 5. पुष्पशालपुत्र, 6. वल्कलचीरी, 7. कुम्मापुत्त, 8. केतलीपुत्त, 9. महाकाश्यप, 10. तेतलीपुत्र, 11. मंखलीपुत्र, 12. याज्ञवल्क्य (जण्णवक्क), 13. मेतेज्ज भयाली, 14. बाहुक, 15. मधुरायण, 16. शौर्यायण (सौरयायण), 17. विदुर, 18. वारिषेणकृष्ण, 19. आरियायण, 20. उत्कट (भौतिकवादी), 21. गाथापतिपुत्र तरुण, 22. गर्दभाल (दगभाल), 23. रामपुत्त, 24. हरिगिरि, 25. अम्बड परिव्राजक, 26. मातंग, 27. वारत्तक, 28. आर्द्रक, 29. वर्द्धमान, 30. वायु, 31. पार्श्व, 32. पिंग, 33. महाशालपुत्र अरुण, 24. ऋषिगिरि, 35. उद्दालक, 36. नारायण (तारायण), 37. श्रीगिरि, 38. सारिपुत्र (सातिपुत्र), 39. संजय, 40. द्वैपायन (दीवायण), 41. इन्द्रनाग (इंदनाग), 42. सोम, 43. यम, 44. वरुण एवं 45. वैश्रमण के वचन संकलित हैं। इसमें सूत्रकृतांग के रामपुत्र का उल्लेख ऋषिभाषित के तेइसवें अध्ययन में, बाहुक का चौदहवें अध्ययन, तारागण का छत्तीसवें अध्ययन, असित देवल का तीसरे अध्ययन तथा द्वैपायन का चालीसवें अध्ययन में उल्लेख है तथा नमि और पाराशर का ऋषिभाषित में नामोल्लेख प्राप्त नहीं होता।
___ उत्तराध्ययन में नमि वैदेहि का उल्लेख हुआ है, जिन्होंने अपने सभी संबंधियों एवं मिथिला नगरी को छोड़कर अभिनिष्क्रमण किया (उत्तराध्ययन, 9.4 [5])।
सूत्रकृतांग में उल्लेखित ऋषि मतों में कुछ का उल्लेख महाभारत में भी है। असित देवल, द्वैपायन तथा पाराशर का पराशर्य नाम से उल्लेख मिलता है
1. Isibhāsiyam: A Jain Text of Early Period, ed. by Walter Schurbring,
L.D. Institute of Indology, Ahmedabad, 1974.