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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
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मालवणिया के अनुसार उमास्वाति/उमास्वामी का तत्त्वार्थसूत्र लिखने का कारण, प्राचीन वाद-विवाद के इतिहास में ढूंढ सकते हैं। उनका कहना है कि दार्शनिक विवादों के इतिहास में नागार्जुन से लेकर धर्मकीर्ति के समय तक का काल ऐसा है, जिसमें दार्शनिकों की वाद-विवाद सम्बन्धी प्रवृत्ति तीव्रतम हो गई। नागार्जुन, वसुबन्धु और दिग्नाग जैसे बौद्ध आचार्यों के तार्किक प्रहारों के वार सभी दर्शनों पर पड़े थे और उनके प्रतीकार के रूप में भारतीय दर्शनों में पुनर्विचार की धारा प्रवाहित हुई थी। न्यायदर्शन में वात्स्यायन और उद्योतकर वैशेषिक दर्शन में प्रशस्तपाद, मीमांसा दर्शन में शबर और कुमारिल जैसे प्रौढ़ विद्वानों ने अपने दर्शनों पर होने वाले प्रहारों के प्रत्युत्तर दिये। यही नहीं, उन्होंने इस विवाद से स्वदर्शन को भी नया प्रकाश प्रदान कर उन्हें सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। दार्शनिक विवाद के इस अखाड़े में जैन तार्किकों ने भी भाग लिया और अपने आगम के आधार पर जैनदर्शन को तर्क-पुरस्सर सिद्ध करने का प्रयत्न किया।'
यह श्रेय सर्वप्रथम उमास्वाति को जाता है, जिन्होंने केवल जैनदर्शन के तत्त्वों को सूत्रात्मक शैली में प्रस्तुत किया और विवाद का काम बाद में होने वाले पूज्यपाद (7वीं ई. शताब्दी), अकलंक (750 ई. शताब्दी), सिद्धसेन गणि (7वीं ई. शताब्दी), विद्यानन्दी (8वीं ई. शताब्दी) आदि टीकाकारों के लिए छोड़ दिया।
इन ग्यारह प्रश्नों के सिद्धान्त रूप धारण करने पर लोगों में जिज्ञासु वृत्ति का भी विकास हुआ, वो हर बात को अत्यधिक गहराई/सूक्ष्मता से लेने लगे। तीसरी ई. शताब्दी में लोग इस प्रश्न पर आकर रुक गये कि सत् क्या है? जीव सत् है अथवा असत्? पंच महाभूत सत् है अथवा असत् है? यह जानने से पहले लोग यह जानना चाहते थे कि सत् क्या है? सत् किसे कहा जाए।
1. दलसुख मालवणिया, गणधरवाद, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर, 1982. प्रस्तावना,
पृ. 27. 2. जिस प्रकार बादरायण ने उपनिषदों का दोहन करके ब्रह्मसूत्रों की रचना करके वेदान्त दर्शन
को व्यवस्थित किया, उसी प्रकार उमास्वाति ने आगमों का दोहन करके तत्त्वार्थसूत्र की रचना के द्वारा जैनदर्शन को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। देखें, तत्त्वार्थसूत्र जैनागम समन्वय-समन्वयकृता आत्मारामजी महाराज (पंजाबी), जैनागम मूलपाठ, संस्कृत छाया, भाषा टीका सहित, लाला शादीराम गोकुलचंद जौहरी, चांदनी चौक, देहली, 1934.