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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
उसकी पुष्टि कई पौराणिक प्रमाणों से भी होती है। वैदिक काल के पहले से ही ब्राह्मण संस्कृति तथा सृष्टिकर्तृत्व विरोधी व्रात्य तथा इस कोटि के साधक लोग आर्हत संस्कृति के प्रसारक थे, जो ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नहीं मानते थे। किन्तु ये कर्म की शक्ति में विश्वास रखते थे।
वेदों में आर्हत और बार्हत लोगों का उल्लेख हुआ है, जो श्रमण और ब्राह्मण धाराओं के रूप में थे। इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की सिंधु सभ्यता जैन संस्कृति की प्राचीनता पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। मोहनजोदड़ो के उत्खनन से प्राप्त वृषभ युक्त ध्यानमुद्रा में योगियों की सीलों की उपलब्धि तथा वैदिक साहित्य में ऋषभ और वृषभ शब्दों का प्रयोग। इस आधार पर आज कई विद्वान् जैन धर्म की प्राचीनता वेद पूर्व सिद्ध करते हैं किन्तु इतिहासकारों एवं विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं।
वैदिक काल में पणि, यति और व्रात्य लोगों का उल्लेख मिलता है, जो आर्हत धर्म को मानने वाले थे। पणि वर्ग अत्यन्त समृद्धशाली था। ये न केवल धन-सम्पन्न थे अपितु ज्ञानवान भी थे, जो यज्ञीय संस्कृति के विरोधी थे। देश का समस्त व्यापार इनके हाथों में था। ये पणि या पणिक ही आगम युग में गाथापति, श्रेष्ठी कहलाये, जो आगे चलकर वणिक् बन गये और आज बनिया कहलाते हैं।
हीरालाल जैन के अनुसार यति एवं व्रात्य ब्राह्मण परम्परा के न होकर श्रमण परम्परा के ही साधु, सिद्ध (प्रमाणित) होते हैं।' यति एवं व्रात्य अथवा व्रती शब्द जैन परम्परा में आज भी प्रचलन में है (उत्तराध्ययन, 24.12 [471])। वस्तुतः जो आत्मा को सर्वश्रेष्ठ मानती थी, वह यतियों एवं व्रात्यों की परम्परा थी। संसारभर के देशों में संस्कृति का प्रचार करने वाले यति, व्रात्य या श्रमण साधु एवं बौद्ध भिक्षु ही थे। ब्राह्मण साहित्य में भी श्रमणों का उल्लेख मिलता है, किन्तु इस पर विद्वानों में मतैक्य नहीं है।
इस प्रकार जैन धर्म, आर्हत और श्रमण धर्म के नाम से प्राचीनकाल में प्रचलित रहा। अर्हत के उपासक आहेत कहलाये, वहीं पार्श्व एवं महावीर युग में 'निर्ग्रन्थ धर्म' अथवा 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' के नाम से यह परम्परा अस्तित्व में 1. हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद्,
भोपाल. 1975, पृ. 18.