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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
कुछ श्रमण-ब्राह्मण ‘अमराविक्षेप' नामक चञ्चल मछलियों की तरह प्रश्न किया जाने पर कोई एक निश्चित उत्तर (वाविक्षेप) नहीं दे पाते कि उन्हें वाद में निगृहीत किया जा सके (दीघनिकाय, I.1.61, पृ., 29 [548])। इस बारे में बरुआ का कहना है कि अंगुत्तर निकाय में उल्लेखित अविरुद्धक संजय का अनुयायी था। वह दार्शनिक सिद्धान्त के अनुसार अमराविक्खेपिक कहलाता था और नैतिक आचरण के कारण अविरुद्धक।'
जैन आगमों में इस मत के खण्डन में निम्न तर्क प्रस्तुत किये गए हैं
अज्ञानवादी जब स्वयं को अज्ञानवाद का अनुशासन नहीं दे सकते, तब दूसरों को उसका अनुशासन कैसे दे सकते हैं। जैसे वन में दिग्मूढ़ बना हुआ मनुष्य दिग्मूढ़ नेता का अनुगमन करता है तो वे दोनों मार्ग को नहीं जानते हुए घोर जंगल में चले जाते हैं। जैसे एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग में ले जाता हुआ दूर मार्ग में चला जाता है अथवा उत्पथ में चला जाता है अथवा किसी दूसरे मार्ग में चला जाता है इसी प्रकार कुछ मोक्षार्थी कहते हैं-हम धर्म के आराध क हैं किन्तु अधर्म के मार्ग पर चलते हैं। वे सबसे सीधे मार्ग पर नहीं चलते। कुछ अज्ञानवादी अपने वितों के गर्व से किसी दूसरे की पर्दूपासना नहीं करते। वे अपने वितों के द्वारा यह कहते हैं कि हमारा यह मार्ग ही ऋजु है, शेष सब दुर्मति हैं-उत्पथगामी हैं। वे तर्क से सिद्ध करते हैं, पर धर्म और अधर्म को नहीं जानते। जैसे पक्षी पिंजरे से अपने आपको मुक्त नहीं कर सकता, वैसे ही सुख-दुःख से मुक्त नहीं हो सकते। अपने अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मतों की निंदा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं, वे संसार को बढ़ाते हैं (सूत्रकृतांग, I.1.2.44-50 [549])।
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में भारतीय दर्शन के इतिहास में संजय का दर्शन जिस रूप में हमारे सामने है, उससे अभिप्राय तो यह है कि मानव की सहज बुद्धि को भ्रम में डाला जाये, और वह कुछ निश्चित न कहकर भ्रान्त धारणाओं को अप्रत्यक्ष रूप से पुष्ट करे। किन्तु इस आधार पर उसके सिद्धान्तों को ठुकराया नहीं जा सकता, क्योंकि वह छठ वीं शताब्दी ई.पू. का प्रमुख धार्मिक मुखिया था, जिसके बहुत से अनुयायी थे। उसकी शिक्षाओं में कुछ तो वास्तविकता थी। और यह तो सभी मानते हैं कि निश्चित रूप से सत्य को नहीं कहा जा सकता।
1. B.M. Barua, A History of Pre-Buddhistic Indian Philosophy, p. 327.