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उपसंहार
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भारतीय परम्परा में बहुत प्राचीनकाल से ही भौतिकवादी जीवनदृष्टि की मान्यता प्रचारित एवं पल्लवित होती रही है। चार्वाक दर्शन एक प्रसिद्ध दर्शन रहा है, जो आगमयुग में पांचभूतों को स्वीकार करता था और दर्शन युग में चारभूतों की मान्यता रखने वाला था। ऐसा माना जाता है कि आचार्य बृहस्पति इसके प्रतिपादक रहे हैं और हो सकता है कि किसी समय इसका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ रहा हो किन्तु आज इस दर्शन का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता है, तथापि वर्तमान में इसके सिद्धान्तसूत्र दर्शन ग्रंथों में पूर्वपक्ष के रूप में और खण्डन के रूप में उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त 8वीं ई. शताब्दी का जयराशिभट्टकृत 'तत्त्वोपप्लवसिंह' नामक एक ग्रन्थ उपलब्ध होता है, जिसे चार्वाक परम्परा का मूल ग्रन्थ कहा जाता है, किन्तु चार्वाक दर्शन मान्य चार भूत एवं प्रत्यक्ष प्रमाण इन दोनों ही प्रमुख सिद्धान्तों को ग्रन्थकार स्पष्ट रूप से अस्वीकार करता है।
चार्वाक दर्शन का रूप भारतीय जन-मानस में विकृत रूप में व्याप्त है। यद्यपि वह स्वर्ग, नरक एवं परलोक का चिन्तन किये बिना वर्तमान जीवन को सुखमय बनाने का पक्षपाती था और इसके लिए ऋण लेकर भी साधन जुटाए किन्तु सुख से जीए, यह उसका प्रमुख सिद्धान्त था, तथापि वह चोरी, हिंसा आदि कुकृत्य करने की सलाह नहीं देता। यह आत्मा को नहीं मानता था, फिर भी दार्शनिक जगत् में यह दर्शन सर्वाधिक चर्चा का विषय रहा है। दर्शन जीवन के लिए होता है और चार्वाक दर्शन जीवन के लिए अपने विचार तो प्रदान करता ही है।
___ आचार्य हरिभद्रसूरि, हेमचन्द्रसूरि आदि ने भूत-चतुष्ट्यी चार्वाकों के सिद्धान्त का ही प्रतिपादन किया यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि जैनधर्म के महान् आचार्य होते हुए भी उन्होंने अपने सम्प्रदाय के स्वतः प्रमाणरूप आगम ग्रन्थ सूत्रकृतांग में प्रतिपादित पंचभूत मत का उल्लेख नहीं किया। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पंचभूतवादी चार्वाकों की अपेक्षा भूत-चतुष्ट्यवादी चार्वाक ही अधिक प्रसिद्ध रहे हैं। 600 ई.पू. के समय में अनेक मतवादी तीर्थंकर(अजितकेशकंबल, मंखलीगोशाल आदि) ज्ञानरहित क्रिया द्वारा कष्टपूर्ण साधना का जीवन जीते थे। अजितकेशकंबल गर्मी में गरम रहने वाली तथा सर्दी में ठंडी रहने वाली कम्बल ओढ़ साधना किया करता था, ताकि परलोक