Book Title: Jain Agam Granthome Panchmatvad
Author(s): Vandana Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 321
________________ 284 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद 221. दीघनिकाय, पायासिसुत्त, II.410-436 ...खो पायासि राजञो आयस्मन्तं कुमारकस्सपं एतदवोच-अहहि भो कस्सप, एवंवादी एवंदिट्ठि-इति पि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' ति। ....भवन्तो खो पन सद्धायिका पच्चयिका। यं भवन्तेहि दिटुं यथा सामं दिटुं एवमेतं भविस्सती ति। ते मे साधू ति पटिस्सुत्वा नेव आगन्त्वा आरोचेन्ति न पन दूतं पहिणन्ति। अयं पि खो भो कस्सप, परियायो येन मे परियायेन एवं होति-इति पि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता औपपातिका, ...ति। ....इदाहं, भो कस्सप, पस्सामि समणब्राह्मणे सीलवन्ते कल्याणधम्मे जीवितु कामे अमरितुकामे सुखकामे दुक्खपटिकूले। इमं पुरिसं जीवन्तं येव तुलाय तुलेत्वा जियास अनस्सासकं मारेत्वा पुनदेव तुलाय तुलेथा' ति। ते मे 'साधू' ति पटिस्सुत्वा तं पुरिसं जीवन्तं येव तुलाय तुलेत्वा जियाय अनस्सासकं मारेत्वा पुनदेव तुलाय तुलेन्ति। यदा सो जीवति तदा लहुतरो च होति मुदुतरो च कम्मञतरो च; यदा पन सो कालंकतो होति तदा गरुतरो च होति पत्थिनतरो च अकम्मञतरो च। अयं पि खो, भो, कस्सप परियायो, येन मे परियायेन एवं होति-इति पि नत्थि परो लोको, नत्थि ... अप्पेव नामस्स जीवं निक्खमन्तं पस्सेय्यामा, नेवस्स मयं जीवं निक्खमन्तं पस्साम। 222. नंदी, 5.78 से किं तं कालियं? कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा-1. उत्तरज्झयणाई, 2. दसाओ, 3. कप्पो, 4. ववहारो, 5. निसीहं, 6. महानिसीहं, 7. इसिभासियाई, 8. जंबुद्दीवपण्णत्ती, 9. दीवसागर...। 223. Rşibhāşitasūtra, ch. 20, p. 39. उड्डे पायतला अहे केसग्गमत्थका, एस आतापज्जवे कसिणे तयपरियन्ते जीवे, एस जीवे जीवति, एतं तं जीवितं भवति। से जहा णामते दड्डेसु बीएसु ण पुणो अंकुरुप्पत्ती भवति, एतामेव दड्ढे सरीरे ण पुणो सरीररुप्पत्ती भवति। तम्हा इणमेव जीवितं, णत्थि परलोए, णत्थि सुकडदुक्कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसे। णो पच्चायन्ति जीवा, णो फुसन्ति पुण्णपावा, अफले कल्लाण पावए। तम्हा एतं सम्मं ति बेमि : उड्ढे पायतला अहे केसग्गमत्थका एस आयाप (ज्जवे) क (सिणे) तयपरितन्ते एस जीवे। एस मडे, णो एतं तं (जीवितं भवति)। से जहा णामते दड्डेसु बीएसु [...] एवामेव दड्ढे सरीरे [....] । तम्हा पुण्णपावऽग्गहणा सुहदुक्खसंभवाभावा सरीरदाहे पावकम्माभावा सरीरं डहेत्ता णो पुणो सरीररुप्पत्ती भवति। 224. Rşibhāşitasūtra, ch. 20, p. 37 पंच उक्कला पन्नत्ता, तं जहा : दण्डुक्कले 1 रज्जुक्कले 2 तेणुक्कले 3 देसुक्कले 4 सबुक्कले 51

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