________________
उपसंहार
231
में विद्यमान आत्मा का दूसरे शरीर में स्थित आत्मा से सर्वथा पार्थक्य मानने से ही वास्तविक जगत् की सर्व-व्यवस्थाएँ कायम रह सकती हैं।
चतुर्थ अध्याय बौद्ध दर्शन क्षणिकवाद से सम्बन्धित है। भगवान बुद्ध के निर्वाण के कुछ वर्ष पश्चात् ही बौद्धधर्म-दर्शन में कालक्रम से विभिन्न सम्प्रदाय गठित हुए। सर्वप्रथम वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक हीनयान से सम्बन्धित रहे और योगाचार और माध्यमिक महायान से सम्बन्धित रहे। धीरे-धीरे वे सम्प्रदाय भी बौद्ध दर्शन के अनेक वादों में विभाजित हो गए। प्रतीत्य समुत्पाद, क्षणभंगवाद, अनीश्वरवाद तथा अनात्मवाद ये चार प्रमुख बौद्ध दर्शन के मतवाद हैं, जो एक दूसरे के ही विकसित रूप हैं।
उस समय आत्मा के सम्बन्ध में शाश्वत-अशाश्वत का प्रश्न भी बहुत चर्चा का विषय था। बौद्ध एकान्त अनित्यवादी था। वह आत्मा सहित अन्य पदार्थों का सर्वथा नित्य अस्तित्व नहीं मानता था। हर क्षण पदार्थ के पर्यायों में परिवर्तन होता है और अगले क्षण में वह पूर्व से नया होता है। किन्तु वह पूर्व पर्याय से ही सम्बन्धित होता है। बुद्ध ने इस क्षणिकता के सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रतीत्य समुत्पाद के द्वारा सिद्ध किया। बुद्ध ने इस परिवर्तन को अनित्यवाद का नाम दिया, जो बाद में क्षणिकवाद कहलाया। इसके दो रूपपंचस्कन्ध एवं चतुधार्तुवाद का जैन आगमों में सूत्र रूप में उल्लेख है। इन सिद्धान्तों के अन्तर्गत आत्मा को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं माना जाता अपितु पंचस्कन्धों के समुदाय का नाम आत्मा है तथा चार धातु के संयोग से शरीररूप में परिणत होकर जीवसंज्ञा की अभिव्यक्ति होती है। बौद्धों के क्षणिकवाद में न केवल आत्मा अपितु प्रत्येक पदार्थ और उसकी क्रियाएँ क्षणिक हैं। फलतः कर्ता और भोक्ता में सम्यक् तालमेल नहीं बैठ सकता। इस प्रकार व्यक्ति के पुरुषार्थ का यहाँ कोई महत्त्व नहीं रहता।
पंचम अध्याय सांख्यमत के विवरण में अकारकवाद एवं आत्मषष्ठवाद की व्याख्या की गई। उस समय आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न तरह की धारणाएँ थीं। इन विभिन्न धारणाओं में एक मान्यता के अनुसार कुछ लोग आत्म अस्तित्व की स्वीकृति को तो मान्य करते थे किन्तु उसका कर्तृत्व नहीं मानते थे। समस्त चराचर जगत् में जो क्रियाएँ हो रही हैं, उनमें आत्मा का कर्तृत्व नहीं है, वह अकारक है। वास्तव में आगमों में इसका खण्डन बहुत सार्थक है।