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अष्टम अध्याय
उपसंहार
विभिन्न मतवादों की समालोचना एवं जैन दृष्टि से समीक्षा
भगवान महावीर के समय के ऐसे अनेक ऐतिहासिक एवं साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध होते हैं जिनके आधार से यह पता लगता है कि उस समय अनेक दार्शनिक विचारधाराएँ विभिन्न वादों के रूप में अस्तित्व में थी । वे पूर्ण दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित नहीं थीं । क्योंकि वह भारतीय दर्शन के विकास का प्रारम्भिक युग था । आज जो हमें भिन्न-भिन्न दर्शन प्राप्त होते हैं, उनमें उस समय की विचारधाराओं का पूर्णतः समावेश नहीं किया जा सकता। संकेत रूप में कुछ मान्यताओं की पहचान अवश्य की जा सकती है।
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जैन आगमों में विशेषकर सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध एवं भगवती, राजप्रश्नीय आदि में इसके सम्बन्ध में विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। वह सूत्र तथा संकेतरूप में है। तथापि आचार स्थापना हेतु संकेत रूप की जानकारी का भी अपना महत्त्व होता है और आज यह तो पूर्व और पश्चिम के विद्वानों ने सिद्ध कर ही दिया है कि आचारांग और सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध भाषाशास्त्रीय दृष्टि से सभी आगमों में प्राचीन है।
प्रथम अध्याय में महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति का विवेचन किया गया। क्योंकि इस पर विभिन्न मतवादों की धारा खड़ी थी । दूसरा समाज और राजनैतिक स्थिति के विवेचन से उस समय के दार्शनिक मतवादों की स्थिति का अंकन हो सकेगा कि वे विभिन्न मतवाद किस प्रकार की सामाजिक और राजनैतिक स्थिति में उदित हुए। वैसी स्थिति दिखाने के लिए प्रथम अध्याय में सामाजिक राजनैतिक स्थिति का वर्णन किया गया ।
द्वितीय अध्याय में सर्वप्रथम जिस दार्शनिक वाद की चर्चा की गई है, वह है भूतपञ्चक - पृथ्वी, अपू, तेज, वायु तथा आकाश इन पांचों में विश्वास रखने वाला 'पंचभूतवाद' । इनके अनुसार इन पांच तत्त्वों के मिलने से आत्मा नामक तत्त्व की उत्पत्ति होती है । किन्तु वह आत्मतत्त्व शाश्वत नहीं होता अपितु देहगत पांचों भूत नष्ट होते ही वह आत्मा भी उसके साथ नष्ट हो जाती है । उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता ।