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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
की कल्पना आर्यों के समान नहीं थी परन्तु वीर पुरुष विभिन्न देवों के पुत्ररूप माने जाते थे। लेकिन देवता के मनुष्य रूप में पृथ्वी पर जन्म लेने की बात यूनान में मान्य नहीं थी।
इस्लाम के शिया सम्प्रदाय में अवतार के समान सिद्धान्त का प्रचार है।'
वैदिक परम्परा में तो अवतारवाद एक प्रमुख सिद्धान्त रहा है। यहां विष्णु के अवतारों की परम्परा चली है। गीता में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है-जब-जब संसार में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होने लगती है, तब-तब मैं ही अपने रूप को रचता हूँ, प्रकट करता हूँ। साधु-पुरुषों की रक्षा तथा दूषित काम करने वालों का नाश करने के लिए मैं युग-युग में जन्म (अवतार) लेता हूँ। अतः इसे 'अवतारवाद' या 'पुनरागमनवाद' भी कहा जा सकता है (गीता, 4.7-8 [611])।
उक्त तथ्यों के प्रकाश में ऐसा प्रतिबिम्बित होता है कि अवतारवाद की प्रतिष्ठा/स्थापना के पीछे कुछ कारण रहे हैं-पहला सब धर्मों में प्रतिष्ठित महापुरुषों की परमेश्वर रूप में प्रतिष्ठा दिलाना तथा दूसरा उन महान् व्यक्तियों को परमेश्वर का अंश मानकर अपने अवतारों में गिनना अर्थात् वैदिक परम्पराओं में जो 23-23 विष्णु अवतारों की कल्पना है। इससे ऐसा लगता है कि सभी धर्मों के प्रतिष्ठित महापुरुषों को विष्णु का पूर्वावतार माना गया ताकि श्रीकृष्ण की तुलना में अन्य महापुरुषों की प्रतिष्ठा में वृद्धि न हो पाए।
___ उक्त स्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक उठता है कि जो आत्मा एक बार कर्मफल से सर्वथा रहित हो चुका है, शुद्धावस्था को प्राप्त हो चुका है, तब वह पुनः अशुद्धावस्था को कैसे प्राप्त हो सकता है? इस प्रश्न का समाधान जैनागमों में इस प्रकार किया गया है-राग-द्वेष-मुक्त एवं कर्म बीज रहित मुक्त जीव पुनः राग-द्वेष से प्रेरित होकर कर्मलिप्त बनते है, महावीर के मत में वे ब्रह्म अर्थात् आत्मा की चर्या में स्थित नहीं है।(सूत्रकृतांग, I.1.3.72 [612])। वृत्तिकार के अनुसार इन लोगों का यह मन्तव्य है कि अपने धर्म शासन की-सम्प्रदाय की पूजा प्रशस्ति, प्रतिष्ठा तथा तिरस्कार या अवहेलना देखने से मुक्त जीवों को कर्मों का बंध होता है किन्तु स्थिति यह है कि इनके दर्शन की पूजा-कीर्ति,
1. बलदेव उपाध्याय, भारतीय धर्म और दर्शन, चौखम्बा पब्लिशर्स, वाराणसी, 2000. पृ., 528-33.