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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
1. अभिक्रम्य-स्वयं जाकर प्राणी की घात करना। 2. प्रेष्य-दूसरे को भेजकर प्राणी की घात करवाना। 3. प्राणी की घात करने वाले का अनुमोदन करना।
ये तीन आदान हैं जिनके द्वारा कर्म का उपचय होता है। जो इन तीनों आदानों का सेवन नहीं करता है वह भावविशुद्धि (राग-द्वेष रहित प्रवृत्ति) के द्वारा निर्वाण को प्राप्त होता है।
___ असंयमी गृहस्थ भिक्षु के भोजन के लिए पुत्र (सूअर या बकरे) को मार कर मांस पकाता है, मेधावी भिक्षु उसे खाता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता (सूत्रकृतांग, I.1.2.52-55 [599])। यहां पर कर्मोपचय सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है।
प्रस्तुत कर्मोपचय निषेधवाद क्रियावादी दर्शन है, जो प्राचीन काल से निरूपित है। उनका कर्म-विषयक चिन्तन सम्यक्-दृष्ट नहीं है, जो दुःख स्कन्ध को बढ़ाने वाला है (सूत्रकृतांग, I.1.2.51 [600])। कह सकते हैं कि उक्त मत बौद्धों का है। क्योंकि पंचस्कन्ध सिद्धान्त क्षणिकवादी कुछ बौद्धों का मत है। साथ ही बौद्ध दर्शन अक्रियावादी भी रहा है, जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है और यहां उसे स्पष्टतः क्रियावादी बताया है। वस्तुतः वे एकान्त क्रियावादी हैं। बौद्ध कर्मबंध की चिंता आदि से दूर है। कोई भी क्रिया, भले ही उससे हिंसादि हो, चित्तशुद्धिपूर्वक करने पर कर्मबन्धन नहीं होताइस प्रकार की कर्मचिन्ता से दूर रहने के कारण ही संभवतः बौद्धों को 'एकान्त-क्रियावादी' कहा गया होगा।
मज्झिमनिकाय में पाप कर्मबंध के तीन कारण बताये गए हैं-1. स्वयं किसी प्राणी को मारने के लिए उस पर आक्रमण या प्रहार करना। 2. नौकर आदि दूसरों को प्रेरित या प्रेषित करके प्राणिवध कराना और 3. मन से प्राणिवध के लिए अनुज्ञा-अनुमोदना करना। ये तीनों पापकर्म (बन्ध) के कारण इसलिए हैं कि इन तीनों में दुष्ट अध्यवसाय-राग-द्वेष युक्त परिणाम रहता है (मज्झिमनिकाय, उपालिसुत्त, II.6.1 [601])।
___ भावों की विशुद्धि होने से कर्मबंध ही नहीं होता, अपितु मोक्ष की प्राप्ति भी की जा सकती है। इसका अर्थ है जहां विशुद्ध मन से, राग-द्वेष रहित बुद्धि