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महावीरकालीन अन्य मतवाद
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पाश्चात्य दर्शन में भी संशयवाद या संदेहवाद एक दार्शनिक सिद्धान्त है, जिसके जन्मदाता पायरो (365-275 ई.पू.) माने जाते हैं। संदेहवादियों के अनुसार हमें वस्तुओं का सच्चा ज्ञान नहीं प्राप्त होता है। ज्ञान के अभाव में मानव का वस्तुओं के साथ न तो सही सम्बन्ध और न सही अभिवृत्ति की बात कही जा सकती है। अतः व्यक्तियों को वस्तुएँ भिन्न-भिन्न दिखाई देती हैं और उन वस्तुओं के प्रति व्यक्तियों के मत (Opinion) भी भिन्न-भिन्न होते हैं। अतः ज्ञान और निश्चितता कहीं नहीं प्राप्त हो सकती है। इसलिये वास्तव में वस्तुओं के प्रति हमारी अभिवृत्ति स्थगित (Suspension of Judgement) रहनी चाहिए।'
वस्तुतः यूनानी दर्शन में संशयवाद बहुत सामान्य था। गौर्जिया (Gorgia) के अनुसार यदि कोई सत्ता भी हो, तो इसे नहीं जाना जा सकता है। इसी प्रकार प्रोटागोरस की प्रसिद्ध उक्ति है कि मानव ही सब प्रकार के ज्ञान का मापदण्ड है, जिसका अभिप्राय है कि कहीं भी सर्वव्यापक ज्ञानप्राप्ति की कोई कसौटी नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए सत्यता का अपना-अपना मापदण्ड है। हेराक्लिट्स के अनुसार सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं और पार्मिनाइड्स के अनुसार अनेकता और गति भ्रम हैं, केवल एक अविचल परम भाव सत् (Being) है। प्लेटो की पुस्तक 'पार्मिनाइड्रस' में न्याय, अच्छाई इत्यादि की अवधारणा को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है, पर इन सब धारणाओं के सम्बन्ध में निष्कर्ष अनिश्चित ही देखा गया है। इसलिये संशयवादियों का निष्कर्ष है कि यदि कुछ सत्ताएँ यथार्थ हों भी, तो भी उनका ज्ञान मानव को नहीं हो सकता है।
वस्तुतः ज्ञान हमारे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है। बिना ज्ञान के अथवा अज्ञान की स्थिति में कोई कार्य नहीं हो सकता। अगर एक अज्ञानवादी भी अज्ञानवाद दर्शन की बात करता है तो वह किस आधार पर? निश्चित ही अज्ञानवाद की स्थापना भी ज्ञान रूपी संज्ञा के बिना संभव नहीं। वह ज्ञानवादियों को मिथ्या ठहराता है तो भी ज्ञान के आधार पर ही। अतः ज्ञान का सर्वथा अभाव अथवा अत्यन्ताभाव की स्थिति में मानव जीवन का चलना
1. या. मसीह, पाश्चात्य दर्शन का समीक्षात्मक इतिहास, (यूनानी, मध्ययुगीन, आधुनिक और __हेगेल दर्शन), मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पंचम संशोधित संस्करण, 1994, पृ.128. 2. या. मसीह, वही, पृ. 127.