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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
ढूह), वृक्ष, पुष्करिणी, जलकमल, जल का बुलबुला आदि का उदाहरण देते हुए अपने मत की पुष्टि करते कि यह हमारा दर्शन सत्य है, यही तथ्य है । इस प्रकार अपनी संज्ञा उपस्थापित करते हैं और द्वादशांगी गणिपिटक को मिथ्या प्ररूपित करते हैं (सूत्रकृतांग, II. 1. 32, 34-35 [582])।
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ईश्वर सम्बन्धी उक्त मान्यताएं न्याय ( नैयायिक) दर्शन की लगती हैं । क्योंकि वे ईश्वर को सृष्टि का निमित्त कारण मानते हैं । न्यायसूत्र के अनुसार जीवात्मा के किए कर्म प्रायः निष्फल जाते हैं तथा पुरुष कर्मफल की प्राप्ति में ईश्वर के अधीन है (न्यायसूत्र, 4.1.19-20 [ 583] ) । यद्यपि उस युग में ईश्वर कर्तृत्ववादी वेदान्ती आदि दार्शनिक भी हुआ करते थे । किन्तु वेदान्ती ईश्वर को उपादान कारण मानते हैं। वहां जीव - अजीव आदि का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। जिस ब्रह्म ईश्वर से ये प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिससे ये भूत (प्राणी) उत्पन्न होकर जीवित रहते हैं, जिसके कारण प्रयत्न ( हलन चलन आदि प्रवृत्ति) करते हैं, जिसमें विलीन हो जाते हैं, उन सबका तादात्म्य - उपादान - कारण ईश्वर ही है (तैत्तिरियोपनिषद्, 3 [584] ) । नैयायिक दर्शन में ईश्वर का स्वतन्त्र अस्तित्व है, जबकि वेदान्त दर्शन में ब्रह्म ही सत्य है, अतिरिक्त सब मिथ्या है, भ्रमरूप (माया) है। वहां प्रकृति को माया और महेश्वर को मायावी कहा गया है (श्वेताश्वतरोपनिषद्, 4.10 [ 585]) । अतः उस मायावी ईश्वर के द्वारा कृत सृष्टि भी मायारूप भ्रमरूप है।
प्रधानकृत सृष्टि
सूत्रकृतांग में सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रधानकृत सृष्टि की अवधारणा का उल्लेख आया है (सूत्रकृतांग, I. 1.3.65 [586 ] ) । प्रधान का अर्थ है - सांख्य सम्मत प्रकृति अर्थात् यह सिद्धान्त सांख्य दर्शन से सम्बन्धित है । सांख्यदर्शन के अनुसार मूल तत्त्व दो हैं - चेतन और अचेतन । ये दोनों अनादि और सर्वथा स्वतन्त्र हैं । चेतन, अचेतन का अथवा अचेतन चेतन का कार्य या कारण नहीं हो सकता । इस दृष्टि से सांख्यदर्शन सृष्टिवादी नहीं है । वह सत्कार्यवादी है। अचेतन जगत् का विस्तार 'प्रधान' से होता है, इस अपेक्षा से सूत्रकार ने सांख्यदर्शन को सृष्टिवाद की कोटि में परिगणित किया है । सांख्यदर्शन के अनुसार पुरुष, अपरिणामी एवं उदासीन है। वह सृष्टि का निर्माण नहीं करता। उसके अनुसार सृष्टि प्रधानकृत है। पुरुष के चेतन स्वभाव