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महावीरकालीन अन्य मतवाद
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होने से, उसी पुरुष के संयोग से अचेतन लिङ्ग (बुद्धि आदि) भी चेतन की तरह हो जाता है। इस प्रकार अध्यवसायादि के वास्तविक कर्तृत्व बुद्धि (गुणों) में रहने पर भी, दोनों के सन्निकट होने से उदासीन पुरुष में भी कर्तृत्व का उपचार किया जाता है (सांख्यकारिका, 20 [587])।
प्रधान का एक नाम प्रकृति है। वह त्रिगुणात्मिका होती है। सत्व, रजस् और तमस्-ये तीन गुण हैं (षड्दर्शनसमुच्चय, 34 [588])। इनकी दो अवस्थाएं होती हैं-साम्य और वैषम्य। साम्यावस्था में केवल गुण ही रहते हैं। यही प्रलयावस्था है। वैषम्यावस्था में वे तीनों गुण विभिन्न अनुपातों में परस्पर मिश्रित होकर सृष्टि के रूप में परिणत हो जाते हैं। इस प्रकार अचेतन जगत् का मुख्य कारण यह 'प्रधान' या 'प्रकृति' ही है। स्वयंभूकृत सृष्टि (विष्णुवाद या ब्रह्मावाद)
किसी महर्षि के मत में यह सृष्टि स्वयंभू द्वारा रचित है (सूत्रकृतांग, I.1.3.66 [589])। जिनदासगणि के अनुसार महर्षि का अर्थ है-महर्षि अथवा ब्रह्मा और व्यास ऋषि महर्षि (सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 41 [590]) और शीलांक के मत में जो अपने आप होता है, उसे स्वयंभू कहते हैं। वह विष्णु है अथवा दूसरा कोई है। वह पहले एक ही थे। उन्होंने दूसरे की इच्छा की उनकी चिन्ता के बाद ही दूसरी शक्ति उत्पन्न हुई। वह शक्ति उत्पन्न होने से सृष्टि उत्पन्न हुई (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 65 [591])। स्वयंभू सृष्टि या विष्णुकृत सृष्टि की उत्पत्ति के सन्दर्भ में नारायणोपनिषद् में विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है (नारायणोपनिषद्, 13वां गुच्छ) तथा मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में ब्रह्मा द्वारा कृत सृष्टि उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्थान-स्थान पर विवरण उपलब्ध है।
जब विष्णु अथवा ब्रह्मा ने जीवाकुल सृष्टि की रचना की और पृथ्वी, जीवों के भार से आक्रान्त हुई। वह और अधिक भार वहन करने में असमर्थ थी तब उस स्वयंभू ने लोक को उत्पन्न कर अत्यन्त भार के रूप में जगत् को मारने वाले यमराज को बनाया। जैसा कि सूत्रकार कहते हैं उस स्वयंभू ने मृत्यु से युक्त माया की रचना की इसलिए यह लोक अशाश्वत है (सूत्रकृतांग, I.1.3.66 [592])। मृत्यु अर्थात् यमराज जिसने माया बनाई, उस माया से लोग
1. सूयगड़ो 12वां अध्ययन, टिप्पण पृ. 322.