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महावीरकालीन अन्य मतवाद
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कुछ जीव को सर्वव्यापी मानते हैं, कुछ उसे असर्वव्यापी मानते हैं। कुछ मूर्त मानते हैं, कुछ अमूर्त मानते हैं, कुछ अंगुष्ठ जितना मानते हैं और कुछ श्यामाक तंदुल जितना। कुछ उसे हृदय में अधिष्ठित प्रदीप की शिखा जैसा मानते हैं। क्रियावादी कर्मफल को मानते हैं (सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 256 [518])। इनको
आस्तिक भी कहा जा सकता है, क्योंकि ये अस्ति के आधार पर तत्त्वों का निरूपण करते हैं (स्थानांगवृत्ति, पृ. 179 [519])।
___ जैकोबी ने क्रियावादी कोटि में वैशेषिकों की गणना की है। और इसके पीछे उन्होंने कोई कारण नहीं बताया तथा जे.सी. सिकदर ने श्रमण निर्ग्रन्थों एवं न्याय-वैशेषिकों को क्रियावाद की कोटि में परिगणित किया। इसके पीछे उन्होंने आत्म-अस्तित्व की स्वीकृति को माना है। उक्त मत विचारणीय है, क्योंकि जिनदासगणि के अनुसार सांख्यवैशेषिक ईश्वरकारणिक आदि अक्रियावादी हैं (सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 254 [520])।
सूत्रकृतांग में एकान्त क्रियावाद का प्रतिपादन हुआ है, वह इस प्रकार है-तीर्थंकर लोक को भली-भांति जानकर श्रमणों और ब्राह्मणों को यह यथार्थ बतलाते हैं-दुःख स्वयंकृत है, किसी दूसरे के द्वारा कृत नहीं है (दुःख की) मुक्ति विद्या और आचरण के द्वारा होती है।
__ वे तीर्थंकर लोक के चक्षु और नायक हैं। वे जनता के लिए हितकर मार्ग का अनुशासन करते हैं। उन्होंने वैसे-वैसे (आसक्ति के अनुरूप) लोक को शाश्वत कहा है। उसमें यह प्रजा संप्रगाढ़-आसक्त है। जो राक्षस, यमलोक के देव, असुर और गंधर्व निकाय के देव हैं, जो आकाशगामी (पक्षी आदि) हैं, जो पृथ्वी के आश्रित प्राणी हैं, वे सब बार-बार विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होते हैं। जिसे अपार सलिल का प्रवाह कहा है, उसे दुर्मोक्ष गहन संसार जानो, जिसमें विषय और अङ्गना-दोनों प्रमादों से प्रमत्त होकर लोक में अनुसंचरण करते हैं (सूत्रकृतांग, I.12.11-14 [521])।
एकान्तक्रियावादी वे हैं, जो एकान्त रूप से जीव आदि पदार्थों का अस्तित्व मानते हैं तथा ज्ञानरहित केवल दीक्षा आदि क्रिया से ही मोक्ष प्राप्ति
1. H. Jacobi, SBE, Sūtrakstānga, Vol. 45, 1964, Introduction, p. XXV. 2 J.C. Sikdar, Studies in the Bhagwati Sutra, pp. 449-450.