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महावीरकालीन अन्य मतवाद
स्व-पर हिंसा से विरत होते हैं अर्थात् स्वयं हिंसा न करते हैं, न ही दूसरे से करवाते हैं। यहीं उनका ज्ञानयुक्त सम्यक् क्रियावाद है ।
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उक्त तथ्यों के आलोक में यह स्पष्ट हो जाता है कि आगम युग तक क्रियावादी की अर्हता के प्रतिपादन में ज्ञान का अत्यधिक महत्त्व था । किन्तु ग्यारहवीं शताब्दी तक क्रियावादियों की कोटि में उनको भी शामिल किया गया है, जो ज्ञान के महत्त्व को अस्वीकार करते हैं और क्रिया को प्रधान मानते हैं ( भगवतीवृत्ति, पत्र - 944 [525])।
अक्रियावाद
क्रियावाद के विपरीत अर्थ में अक्रियावाद है। अक्रियावाद एक संस्कृत शब्द है, अर्थात् कर्मों के प्रभाव को नकारने वाला सिद्धान्त । यह सिद्धान्त एक प्रकार का स्वेच्छाचारवाद था, जो व्यक्ति के पहले के कर्मों का मनुष्य के वर्तमान और भविष्य पर पड़ने वाले प्रभाव के पारम्परिक कार्मिक सिद्धान्त को अस्वीकार करता है। यह सदाचार या दुराचार के माध्यम से किसी मनुष्य द्वारा अपनी नियति को प्रभावित करने की संभावना से भी इन्कार करता है । इस प्रकार अनैतिकता के कारण इस सिद्धान्त के उपदेशकों की, बौद्धों सहित इनके सभी धार्मिक विरोधियों ने आलोचना की, इनके विचारों की जानकारी बौद्ध और जैन साहित्य में अप्रशंसात्मक उल्लेखों के माध्यम से ही मिलती है। इनमें प्रमुख थे-स्वेच्छाचारी सञ्जयवेलट्ठिपुत्त, घोर स्वेच्छाचारी पूरणकश्यप, दैववादी गोशाल मस्करीपुत्र, भौतिकवादी अजितकेशकंबली और परमाणुवादी पकुधकच्चायन ।'
सूत्रकृतांग में अक्रियावाद का प्रतिपादन इस प्रकार हुआ है- आत्मा भविष्य में (वर्तमान और अतीत में भी ) कर्म से बद्ध नहीं होता । अक्रिय आत्मवादी क्रिया को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि अक्रियावादियों के मत में भविष्य और भूतकाल के क्षणों के साथ वर्तमान काल का कोई सम्बन्ध नहीं होता (सूत्रकृतांग, I.12.4 [526 ] ) । शीलांक के मत में एकान्त रूप से जीव आदि पदार्थों का जिस वाद में निषेध किया जाता है । क्रिया का ही अस्तित्व है ऐसा प्रतिपादित करने वाले क्रियावादी कहलाते हैं । क्रिया नहीं है - ऐसा कहने वाले अक्रियावादी हैं ( सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 141 [527] ) । अस्ति इत्यादि
1. भारत ज्ञानकोश, खण्ड-1, पृ. 13.