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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
मानते हैं। सब पदार्थ सद्भावयुक्त हैं, ऐसी अवधारणा के साथ निश्चय से साथ प्रतिपादित करते हैं, किन्तु पदार्थ कथंचित् किसी अपेक्षा से नहीं भी है, ऐसा वे नहीं कहते। वे कहते हैं कि जीव जैसी क्रियाएँ करता है, उसके अनुसार ही वह स्वर्ग-नरक आदि फल को प्राप्त करता है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 146 [522])।
क्रियावादियों का यह कथन किसी सीमा तक ठीक है कि क्रिया से मोक्ष होता है किन्तु एकान्त क्रिया से मोक्ष नहीं होता, इसके साथ सम्यग्ज्ञान भी होना जरूरी है। कोरी क्रिया अथवा ज्ञानरहित क्रिया मात्र से मुक्ति प्राप्त नहीं होती। दशवैकालिक का यह सूक्त पहले ज्ञान, फिर आचरण (दशवैकालिक, 4.10 [523]), इसी तथ्य को सिद्ध करता है। मुक्ति सम्यक् क्रिया और ज्ञान दोनों के योग में निहित है। सम्यक् क्रियावादी अवधारणा
सूत्रकृतांग में कहा गया है कि अज्ञानी मनुष्य कर्म से कर्म को क्षीण नहीं करते। धीर पुरुष अकर्म से कर्म को क्षीण करते हैं। मेधावी, लोभ और मद से अतीत होते हैं तथा सन्तोषी मनुष्य पाप नहीं करता। वे (तीर्थंकर) लोक के अतीत, वर्तमान और भविष्य को यथार्थ रूप में जानते हैं। वे दूसरों के नेता हैं। वे स्वयंबुद्ध होने के कारण दूसरों के द्वारा संचालित नहीं हैं। वे (भव या कर्म का) अन्त करने वाले होते हैं।
जिससे सभी जीव भय खाते हैं, उस हिंसा से उद्विग्न होने के कारण वे स्वयं हिंसा नहीं करते, दूसरों से हिंसा नहीं करवाते। वे धीर पुरुष सदा संयमी
और विशिष्ट पराक्रमी होते हैं, जबकि कुछ पुरुष वाग्वीर होते हैं, कर्मवीर नहीं (सूत्रकृतांग, I.12.15-17 [524])।
उक्त तथ्य यह स्पष्ट कर देते हैं कि कोरी क्रिया अथवा पापकर्मयुक्त क्रिया करने वाला मोक्ष का अर्थी नहीं हो सकता और मेधावी अकर्म से कर्म को क्षीण करता है अर्थात् वह सावध निरवद्य सभी कर्मों के आगमन को रोककर अन्त में पूर्ण रूप से अक्रिय (योग-रहित) अवस्था में जा पहुंचता और कथंचित् सम्यक् अक्रियावाद को भी अपनाता है। ऐसे सम्यक् क्रियावादियों के नेता तीर्थंकर, स्वयंबुद्ध होते हैं। जो धीर, संयमी और विशिष्ट पराक्रमी होते हैं, जो