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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
___3. चार समवसरण की अवधारणा ___मतवाद बहुलता के युग (600 ई.पू.) में क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद तथा विनयवाद इन चार वादी समवसरणों' का उल्लेख जैन आगमों में अनेक जगह पर आया है(I. सूत्रकृतांग, I.12.1, II. उत्तराध्ययन, 18.23, III. स्थानांग, 4.530, भगवती, 30.1.1 एवं सर्वार्थसिद्धि, 8.1 [509])। इन चारों में विभिन्न अभ्युपगम-सिद्धान्तों का समावेश हो जाता है इसीलिए आगमों में इन्हें समवसरण कहा गया है। जिनका स्थानांग में स्वर्ग एवं नरक में भी अस्तित्व बताया है (स्थानांग, 4.531-32 [510])।
इन चार वादों के 363 सम्प्रदाय कहे गये हैं। इनमें 180 अक्रियावादी, 84 क्रियावादी, 67 अज्ञानवादी और 32 विनयवादी हैं (I. सूत्रकृतांग, II.2.76, II. समवायांग, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र 90, नंदी, V.82, II. सूत्रकृतांगनियुक्ति, 12.4, IV. सर्वार्थसिद्धि, 8.1, आचारांगवृत्ति, I.1.1.3, V. कषायपाहुड-जयधवला, गाथा-66, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड, 876, भावपाहुड, 135 [511])।
कहा जाता है कि बारह अंग भगवान् महावीर की मूल वाणी हैं, लेकिन संकलन काल में दृष्टिवाद नामक अंग ग्रन्थ का संकलन नहीं हुआ, क्योंकि ग्रन्थ के नष्ट/अनुपलब्ध होने के कारण उसका ज्ञान सुरक्षित नहीं रह सका। उस लुप्त दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में 363 दृष्टियों का निरूपण और निग्रह किया जाता है ऐसा वीरसेनाचार्य ने धवला (9वीं ई. सदी) में उल्लेख किया है (षट्खंडागम, धवलाटीका, खण्ड-1, पृ. 109, सोलापुर प्रकाशन [512])।
कषायपाहुड की जयधवला टीका (9वीं ई. सदी) में उन्होंने उल्लेख किया है कि दृष्टिवाद के 'सूत्र' नामक दूसरे प्रकार में नास्तिवाद, क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद और वैनयिकवाद का वर्णन है, जिसके प्रकारान्तर से 363 मत हैं (कषायपाहुड-जयधवलाटीका, गाथा-66 की टीका, पृ. 134 [513])।
1. समवसरण अर्थात् जहाँ अनेक दृष्टियों का मिलन समवतार होता है, उसे समवसरण कहा जाता
है (सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 256 [507])। वही, अभयदेवसूरि के अनुसार नाना परिणाम वाले जीव कथंचित् समानता के कारण जिन मतों में समाविष्ट हो जाते हैं वे समवसरण कहलाते हैं अथवा परस्पर भिन्न क्रियावाद आदि मतों में थोडी समानता के कारण कहीं पर कुछ वादियों का समावेश हो जाता है, वे समवसरण हैं (भगवतीवृत्ति, पत्र 944 [508])।