________________
जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
में संन्यास स्वीकार करते थे ) ( I. अनुयोगद्वार, 1.20, II. अनुयोगद्वार अवचूर्णि,
पृ. 12 [495])।
भगवती में देवगति में उत्पन्न होने योग्य साधकों का वर्णन मिलता है (भगवती, 1.2.113 [496])।
1. देवत्व प्राप्त करने योग्य असंयमी -ये श्रामण्य का जीवन जीते हैं किन्तु उनमें श्रामण्य का स्पर्श नहीं होता। उनकी मिथ्या दृष्टि समाप्त / खत्म नहीं होती। वृत्तिकार अभयदेवसूरि ( 11वीं ई. शताब्दी) के अनुसार इसमें भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के मनुष्य हो सकते हैं । वे द्रव्य क्रिया के कारण उच्च ग्रैवेयक तक जा सकते हैं। श्रमण का अनुष्ठान होने पर भी वे चरित्र के परिणाम से शून्य होते हैं इसलिए उन्हें असंयत कहा गया है ( भगवतीवृत्ति, 1.2.113 [497]) |
194
2. संयम की आराधना करने वाले - जो प्रव्रज्या काल से लेकर जीवन पर्यन्त तक चरित्र का पालन करने वाले होते, वह विराधनारहित संयम का अधिकारी माना जाता है । संयम की प्रारम्भिक अवस्था में संज्वलन कषाय का और प्रमत गुणस्थान का अस्तित्व रहता है, इस स्थिति में स्वल्प माया आदि का दोष संभव होने पर भी चरित्र का उपघात नहीं किया जाता। इसलिए उसका संयम अविराधित माना जाता है ( भगवतीवृत्ति 1.2.113 [498])।
3. संयम की विराधना करने वाले - इस कोटि के साधकों का उल्लेख ज्ञाताधर्मकथा में मिलता है ( ज्ञाताधर्मकथा 1. 16.119 [499] ) । वृत्तिकार ने इसमें आर्या सुकुमालिका का उदाहरण दिया है कि आर्या सुकुमालिका ने संयम के मूलगुण, की विराधना नहीं की थी, उत्तरगुण की विराधना की थी अतः कुछ अंशों में संयम की विराधना करने वाले साधक अच्युत तक के स्वर्ग जा सकते हैं (भगवतीवृत्ति, 1.2.113 [500]) ।
4. असंज्ञी - ये साधक नहीं होते ।
5. तापस - इस प्रकार के साधुओं का औपपातिक में विस्तृत वर्णन मिलता है, जिनका पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है ।
6. कान्दर्पिक, किल्विषिक और अभियोगिक - इस प्रकार के साधुओं का औपपातिक में विस्तृत वर्णन मिलता है । कान्दर्पिकों को औपपातिक में किल्विषिक श्रमण कहा गया है ( औपपातिक, 95 [501] ) ।