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महावीरकालीन अन्य मतवाद
थी। आगे चलकर जिन के अनुयायी जैन हो गए, किन्तु श्रमण शब्द बराबर प्रचलित रहा ।
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संक्षेप में, तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय तक यह 'आर्हत धर्म' के नाम से ही प्रचलित था। बौद्ध ग्रन्थों तथा अशोक के शिलालेखों में यह 'निग्गंठ' के नाम से प्रसिद्ध रहा और इण्डो-ग्रीक तथा इण्डो- सीथियन के युग में 'श्रमण' धर्म के नाम से देश-विदेशों में प्रचलित रहा । पुराण - काल में यह 'जिन या जैन धर्म' के नाम से विख्यात हुआ और तब से यह इसी नाम से सुप्रसिद्ध है । जैनागम तथा शास्त्रों में इसके जिनशासन, जैनतीर्थ, स्याद्वादी, स्याद्वादवादी, अनेकान्तवादी, आर्हत और जैन आदि नाम मिलते हैं। देश के विभिन्न प्रान्तों में समय-समय पर यह भिन्न नामों से प्रचलित रहा है। जिस समय दक्षिण में भक्ति-आन्दोलन जोर पकड़ रहा था, उस समय वहां पर यह भव्य धर्म के नाम से प्रसिद्ध था । पंजाब में यह 'भावदास' के नाम से प्रचलित रहा तथा 'सरावग-धर्म' के नाम से आज भी राजस्थान में प्रचलित है। गुजरात में और दक्षिण में यह अलग-अलग नामों से प्रचलित रहा है । और इस प्रकार आर्हत, वातवसन या वातरशन श्रमण से लेकर जिनधर्म और जैनधर्म तक की एक वृहत् तथा अत्यन्त प्राचीन परम्परा प्राप्त होती है । '
यहाँ मुख्य रूप से श्रमण सम्प्रदाय एवं उसकी साधनाचर्या का विवेचन किया जाएगा।
श्रमणों के मुख्य पांच प्रकार के मतों का संक्षिप्त परिचय
श्रमणों के अनेक प्रकार जैन आगम एवं उसके व्याख्या साहित्य में विवेचित हुए हैं। उस युग में 40 से भी अधिक श्रमण सम्प्रदाय अस्तित्व में थे। पिंडनियुक्ति ( 6ठी ई. सदी), निशीथभाष्य ( 6ठी ई. सदी), निशीथचूर्णि (7वीं ई. सदी) तथा प्रवचनसारोद्धार (12वीं ई. सदी) में श्रमणों के मुख्य पांच प्रकारों का उल्लेख मिलता है - णिग्गथं ( खमण), सक्क ( रत्तपड), तापस (वणवासी), गेरूअ (परिव्वायअ ) और आजीविय (पंडरभिक्खु ) ( I. पिंडनिर्युक्ति, 445 अर्धमागधी कोश भाग-4 पृ. 622 पर उद्धृत एवं निशीथभाष्य, 4420, II. निशीथचूर्णि, III. प्रवचनसारोद्धार, 731-733 [472])।
1. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, जैन धर्म प्राचीन इतिवृत्त और सिद्धान्त, गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ, अखिल भारतीय दिगम्बर जैन विद्वत परिषद्, 1967, पृ. 345.