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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
इनकी साधनाचर्या का विवेचन इस प्रकार है
निर्ग्रन्थ
निर्ग्रन्थ, जैन साधु का प्राचीनतम आगमिक नाम है ( I. उत्तराध्ययन, 12.16, 21.2, II. दशवैकालिक जिनदासचूर्णि, पृ. 111, III. दशवैकालिक हारिभद्रीयटीका, पृ. 116 [ 473] ) । जिन को मानने वाले जैन और जिसका धर्म जैनधर्म जो महावीर से पूर्व निर्ग्रन्थ धर्म अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के नाम से भी जाना जाता था (I. सूत्रकृतांग, II. 6. 42, II. भगवती, 9.33.177, III. ज्ञाताधर्मकथा, I.1.101, [474])। यह जैनों का पारिभाषिक शब्द है । न केवल जैन ग्रंथों एवं बौद्ध पालि ग्रंथों में अपितु अशोक के शिलालेखों में निगण्ठ शब्द का प्रयोग मिलता है (सप्तम स्तम्भ लेख, देहली टोपरा संस्करण, 26वीं पंक्ति पृ. 108, प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह, खण्ड - 1 ( प्राक् गुप्त युगीन) [475]) ।
आचारांगकार निर्ग्रन्थ को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि - जिनका मन पापों से रहित है, वह निर्ग्रन्थ है ( आचारचूला, 15.778 ब्या.प्र. [476])। निर्ग्रन्थ जो अकेला होता है, एकत्व भावना को जानता है, बुद्ध है, जिसके स्रोत छिन्न हो चुके हैं, जो सुसंयत, सुसमित और सम्यक् सामायिक (समभाव) वाला है, जिसे आत्मप्रवाद (आठवाँ पूर्व ग्रन्थ) प्राप्त है, जो विद्वान् है, जो इन्द्रियों का बाह्य और आभ्यन्तर- दोनों प्रकार से संयम करने वाला है, जो पूजा, सत्कार और लाभ का अर्थी नहीं होता, जो केवल धर्मार्थी, धर्म का विद्वान, मोक्ष मार्ग के लिए समर्पित, सम्यग् चर्चा करने वाला, उपशान्त, शुद्ध, चैतन्यवान् और देह का विसर्जन करने वाला है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है ( सूत्रकृतांग, I. 16.6 [ 477])। ग्रन्थ का अर्थ है-बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह, जो उससे - ग्रंथ से सर्वथा मुक्त होता है, उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं (दशवैकालिक अवचूर्णि, पृ. 59 [478])।
जैनसूत्रों में कुछ निर्ग्रन्थ साधकों का उल्लेख मिलता है - भगवती में वैशालिक श्रावक 'पिंगल' नाम के निर्ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है, जो श्रावस्ती नगरी में रहते थे (भगवती, 2.1.25 [479]) ।
बौद्ध ग्रन्थों में भगवान् महावीर के लिए निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र विशेषण प्रयुक्त हुआ है। साथ ही उन्हें चातुर्याम संवरवादी कहा है, उनके चार संवर इस प्रकार थे