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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
चिकित्सा करने, जूते पहनने, अग्नि जलाने, स्थान दाता के घर भिक्षा लेने, पलंग पर बैठने, उबटन लगाने, गृहस्थ को भोजन संविभाग देने, जाति, कुल, गण, शिल्प और कर्म का अवलम्बन ले भिक्षा प्राप्त करने, सजीव वस्तु ग्रहण करने (मूली, अदरक, इक्षुखंड, मूल, आम, बीज), अपक्व नमक या कच्चा नमक (समुद्री लवण, पांशु खार आदि), धूम्रपान करने, रोग की संभावना से बचने के लिए वमन करने, अंजन लगाने, मर्दन करने और शरीर को अलंकृत करने का त्याग होता है (दशवैकालिक, 3.2-10 [483])।
श्रमण निर्ग्रन्थ को छः कारणों से आहार ग्रहण करने का विधान बताया है-1. क्षुधा की उपशांति के लिए, 2. वैयावृत्य, 3. ईर्याविशुद्धि, 4. संयम, 5. प्राण धारण और 6. धर्मचिन्ता (स्थानांग, 6.41 [484])।
इसके अतिरिक्त ज्ञाताधर्मकथा में निर्ग्रन्थों के लिए भोजन पान ग्रहण करने संबंधी निम्न निषेध बताए हैं-आधाकर्म औद्देशिक (जो साधु के लिए विशेष तौर पर तैयार किया गया भोजन), क्रीतकृत (जो उठाकर रखा हो, और उनके लिए बनाया गया हो), दुर्भिक्ष भोजन (दुर्भिक्ष पीड़ितों के लिए रखा हुआ), कांतार भोजन (जंगल के लोगों के लिए तैयार किया हुआ भोजन), वर्दलिका भक्त (वर्षा ऋतु में तैयार किया गया भोजन), ग्लान भोजन (बीमारों का भोजन), इसके अतिरिक्त मूल, कंद, फल, बीज और हरित भोजन (ज्ञाताधर्मकथा, I.1.112 [485])।
शाक्य
जैन आगमों में शाक्य श्रमणों का उल्लेख मिलता है, जिन्हें रक्तपट अथवा क्षणिकवादी नाम से उल्लेखित किया गया। सूत्रकृतांग में इनके पंचस्कंध और चतुर्धातुवाद सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है (सूत्रकृतांग, I.1.1.17-18 [486])।
नंदी एवं अनुयोगद्वार में बुद्धशासन को लौकिक श्रुत में गिना गया है (I. नंदी, 4.67, II. अनुयोगद्वार, 1.49; 9.548 [487]) और अनुयोगद्वार में कुप्रावचनिक भाव आवश्यक का उल्लेख है (अनुयोगद्वार, 1.26 [488]), जिसमें भिक्खोंड (भिक्षाजीवी) शब्द बौद्ध भिक्षुओं के लिए प्रयुक्त हुआ है (I. अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ. 12, II. हरिभद्रीयावृत्ति, पृ. 17 [489])।