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महावीरकालीन अन्य मतवाद
1. निर्ग्रन्थ, जल के व्यवहार का वारण करता है, जिससे जल के जीव मर जायें ।
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2. निर्ग्रन्थ, सभी पापों का वारण करता है ।
3. निर्ग्रन्थ, सभी पापों के वारण करने से धुत - पाप हो जाता है 1
4. निर्ग्रन्थ, सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है ।
इस प्रकार निर्ग्रन्थ चार संवरों से संवृत रहता है, इसीलिए वह निर्ग्रन्थ गतात्मा (अनिच्छुक ), यतात्मा (संयमी ) और स्थितात्मा कहलाता है ( दीघनिकाय, 1.2.177, q. 50-51 [480]) |
दशवैकालिक में निर्ग्रन्थ का स्वरूप बताते हुए कहा गया है- पांच आश्रवों का निरोध करने वाला, तीन गुप्तियों से युक्त, छह प्रकार के जीवों के प्रति संयत, पांच इन्द्रियों का निग्रह करने वाले धीर निर्ग्रन्थ ऋजुदर्शी होते हैं । वे सुसमाहित निर्ग्रन्थ ग्रीष्म में सूर्य की आतापना लेते हैं, हेमन्त में खुले बदन रहते हैं और वर्षा में एक स्थान में रहते हैं । वे परीषहों का दमन करने वाले, जितेन्द्रिय सर्वदुःखों का नाश करने के लिए पराक्रम करते हैं (दशवैकालिक, 3.11-13 [481])
श्रमण निर्ग्रन्थ के लिए अठारह प्रकार के आचार स्थान का उल्लेख हुआ है, वे हैं - छह प्रकार के व्रत - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और रात्रिभोजन त्याग; छह प्रकार के काय - पृथ्वी, अपू, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस जीवों की रक्षा, अकल्प अर्थात् अभक्ष्य वस्तुओं का त्याग, गृहस्थ के पात्र में भोजन करने का त्याग, खाट (पलियंक), आसन (निसज्जा ) तथा स्नान और शरीरभूषा का त्याग (दशवैकालिक, 6.7 [ 482 ] ) । इसी ग्रन्थ में निर्ग्रन्थों के लिए इन विधि विधान के साथ कुछ और अनाचीर्ण ( अकरणीय) नियमों का उल्लेख हुआ है, जैसे - औद्देशिक, क्रीतकृत, नित्याग्र (निमंत्रित कर दिया जाने वाला भोजन), अभिहृत (निर्ग्रन्थ के निमित्त दूर से सम्मुख लाये गये आहार), रात्रिभक्त, स्नान, गंध सूंघने, माला पहनने, पंखा झलने का त्याग, साथ ही सन्निधि (खाद्य वस्तुओं का संग्रह करना), गृहि अमत्र ( गृहस्थ के पात्र में भोजन करने ) । राजपिण्ड, इच्छा बताकर लिया जाने वाला भोजन, अंगमर्दन, दांत मांजने, दर्पण आदि में शरीर देखने, शतरंज खेलने, प्रयोजन के बिना छत्र धारण करने,