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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
भी आग दिखाई नहीं दी। वह निराश होकर बैठ गया और सोचने लगा कि देखो, मैं अभी तक भी भोजन तैयार नहीं कर सका। इतने में जंगल से उसके साथी लौटकर आ गये, उसने उन लोगों से सारी बातें कहीं। इस पर उनमें से एक साथी ने शर बनाया और शर को अरणि के साथ घिसकर अग्नि जलाकर दिखायी और फिर सबने भोजन बनाकर खाया। हे प्रदेशी! जैसे लकड़ी को चीरकर आग पाने की इच्छा रखने वाला उक्त मनुष्य मूर्ख था, वैसे ही शरीर को चीरकर जीव देखने की इच्छा वाले तुम भी कुछ कम मूर्ख प्रतीत नहीं होते।
जिस प्रकार अरणि के माध्यम से अग्नि अभिव्यक्त होती है किन्तु प्रक्रिया उसी प्रकार मूर्खतापूर्ण है, जैसे अरणि को चीर-फाड़ करके अग्नि को देखने की प्रक्रिया। अतः हे राजा! यह श्रद्धा करो कि आत्मा अन्य है और शरीर अन्य (राजप्रश्नीय, 748-56, 762-65, 71 [220])। अन्त में राजा केशीमत का समर्थन कर देता है और केशीकुमार के उपदेश से आस्तिक बन जाता है अपितु इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि भगवान महावीर से पूर्व भगवान पार्श्वनाथ के शासनकाल में भी नास्तिकवाद पूर्णरूप से प्रचलन में था।
बौद्ध परम्परा में भी पायसि राजन्य कुछ ऐसे ही सिद्धान्तों को मानने वाला था, दीघनिकाय में वे कुमारकश्यप से कहते हैं कि न तो कोई लोक होता है, न परलोक होता है; न जीव मरकर पैदा होते हैं और न ही अच्छे-बुरे कर्मों का फल होता है, मरे हुए को किसी ने लौटकर आते नहीं देखा। दूसरा धर्मात्मा आस्तिकों को भी मरने की इच्छा नहीं होती, तीसरा जीव के निकल जाने पर मृत शरीर का न तो वजन ही कम होता है और न ही जीव को कहीं से निकलते जाते देखा जाता है (दीघनिकाय, पायासिसुत्त, II.410-436 [221])। इस प्रकार की शंकाओं का कुमारकश्यप द्वारा अनेक उपमाएँ देकर समाधान किया जाता है, जैसा कि राजा प्रदेशी की केशीकुमार द्वारा।
चार्वाक दर्शन की अथवा तज्जीव-तच्छरीरवाद की चर्चा में जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं में अधिकांश तर्क समानता रखते हैं। इसमें इनकी ऐतिहासिकता
और प्राचीनता दोनों सिद्ध होती हैं, जिनका उक्त मतवाद के ऐतिहासिक विकासक्रम की दृष्टि से भी महत्त्व सिद्ध होता है।
इस प्रकार कह सकते हैं कि अजित के विचार का अनुसरण प्रदेशी द्वारा किया जाता है और उसे अधिक तार्किक रूप दिया जाता है। आत्मा शरीर से