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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
ओर फेंक दिया और आगे बढ़ गए। इसी बीच साधारण वर्षा हुई और वह तिल का पौधा मिट्टी में जम गया और उस तिल के पौधे की फली में सात तिल उत्पन्न हुए। थोड़े समय बाद पुनः गोशालक ने महावीर के साथ कूर्मग्राम से सिद्धार्थग्राम की ओर विहार किया और उसी तिल के पौधेस्थान पर आ गये। तब गोशालक ने तिलों के सम्बन्ध में महावीर से कहा-भगवन्! आपकी तिलों के सम्बन्ध में मिथ्या धारणा थी। न तिल वृक्ष निष्पन्न हुआ, न सात तिल पुष्प जीव मरकर सात तिल हुए हैं। महावीर ने उसे सारी घटना सुनाई और कहा-“गोशालक! तूने मेरे कथन को असत्य प्रमाणित करने के लिए उस तिल वृक्ष को उखाड़ डाला था, पर आकस्मिक वृष्टि-योग से वह पुनः मिट्टी में रुप गया और वे सात पुष्प-जीव भी इसी तिल वृक्ष की फली में सात तिल हो गये हैं। मेरा कथन किञ्चित् भी असत्य नहीं है।" तूने मेरी बात पर विश्वास नहीं किया। वह उस तिल पौधे के पास गया और उसने वह फली तोड़ी। उसमें सात ही तिल निकले। इससे गोशालक ने सोचा-जिस प्रकार वनस्पति के जीव मरकर पुनः उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार सभी जीव मरकर उसी शरीर में उत्पन्न हो सकते हैं। इस प्रकार गोशालक ने अपना ‘पउट्ट-परिहार' का एक नया सिद्धान्त बना लिया (भगवती, 15.57-59, 72-75 [449])। गोशाल का ‘पउट्ट-परिहारवाद' पाँचवें गणधर सुधर्मा द्वारा पूछे गये प्रश्न कि 'इस भव में जीव जैसा है, परभव में भी वैसा ही होता है या नहीं' के समान लगता है। जिसका वर्णन प्रथम अध्याय में किया जा चुका है।
8. भारतीय चिन्तन में नियतिसम्बन्धी अवधारणा
नियतिवाद की अवधारणा उपनिषदों से पूर्व भी प्रचलित थी। यही कारण है कि श्वेताश्वतरोपनिषद् में जगत् की उत्पत्ति के कारणों की चर्चा में काल, स्वभाव, नियति आदि का खण्डन किया गया है (श्वेताश्वतरोपनिषद्, 1.2 [450])।
यह नियतिवाद एकान्त रूप से नियति को ही कारण मानता था। नियति के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए शंकराचार्य ने शांकरभाष्य में कहा है-पुण्य-पाप रूप जो अविषम कर्म है, वे नियति कहे जाते हैं (श्वेताश्वतरोपनिषद्, 1.2 का शांकरभाष्य [451])। अविषम कर्म से तात्पर्य जिनका फल कभी विपरीत नही होता।