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नियतिवाद
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निकाचित प्रगाढ़ बन्धमय होते हैं, उनका फल भोगना ही पड़ता है। बिना भोगे निर्जरण नहीं होता। अनिकाचित को तपस्या द्वारा क्षीण किया जा सकता है। अन्ततः न एकान्त नियतिवाद स्वीकार्य है न अनियतिवाद ही। अतः आगमकार ने इन्हें बाल और अबुद्धि कहा है।
भारतीय समाज में नियतिवाद का आज भी पर्याप्त प्रभाव देखा जाता है, जो भाग्यवाद का ही दूसरा पहलू है। इसका अस्तित्व संभवतः मंखलिगोशाल से पूर्व भी था और आधुनिक काल में भी इस सिद्धान्त को मानने वाले व्यक्ति भी मिलते हैं।
वस्तुतः नियति को नियम-समष्टि या नियमन करने वाली शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। यह विश्व एक ऐसी शक्ति या नियम व्यवस्था के अधीन है, जिसका उल्लंघन करना या नियम व्यवस्था में छेड़छाड़ करना मनुष्य की शक्ति से बाहर है। यह नियति विश्व की नियामिका शक्ति है, जिसके अनुशासन को सम्पूर्ण विश्व स्वीकार करता है। आकस्मिक घटनाओं का कारण नियति ही है और यही कारण है कि कई बार हम आकस्मिक अद्भुत घटनाओं के घटित होने पर उसके रहस्य को नहीं जान पाते कि यह सब किस कारण से हुआ। अतः नियति विश्व की संचालिका, नियामिका, प्रेरक शक्ति के रूप में मान्य है।
नियतिवाद के सन्दर्भ में यह प्रश्न भी उठता है कि जब विश्व में सब कुछ पूर्व निर्दिष्ट है अथवा नियति के अधीन है तो क्या मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा शक्ति का कोई मूल्य नहीं? इस प्रश्न के उत्तर में सम्पूर्ण भारतीय दार्शनिक अपने-अपने ढंग से उत्तर देते हैं कि मनुष्य में अपने सामर्थ्य से मोक्ष अथवा पूर्णता की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। इसलिए भारतीय दार्शनिक चिंतन में नियति का घोर विरोध हुआ है। लेकिन यह बात उतनी ही सत्य है कि भारतीय व्यावहारिक जीवन में नियतिवाद किसी न किसी रूप में प्रतिष्ठित रहा है। माघ के शब्दों में-विद्वान् न तो केवल दैव का सहारा लेता है और न पौरुष पर ही स्थित रहता है। जिस प्रकार सत् कवि शब्द और अर्थ दोनों का आश्रय ग्रहण करता है उसी प्रकार विद्वान् भी दैव और पुरुष दोनों को जीवन में आवश्यक समझता है (शिशुपालवध 2.86 [467])।
पाश्चात्य जगत् में भी नियतिवादी अवधारणा का पर्याप्त प्रभाव देखा जाता है। यही कारण है कि पश्चिमी नाटककारों (दांते, होमर, शेक्सपीयर