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नियतिवाद
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हैं, शरीर से नहीं), बासठ प्रतिपदाएँ (माग), बासठ अन्तरकल्प, छह अभिजातियाँ, आठ पुरुष भूमियां, उनचास सौ आजीवक, उनचास सौ परिव्राजक, उनचास सौ नाग (सप) आवास, दो हजार इन्द्रियां, तीन हजार नरक, छत्तीस रजोधातु, सात संज्ञी गर्भ, सात असंज्ञी गर्भ, सात निर्ग्रन्थ गर्भ, सात देव, सात मनुष्य, सात पिशाच, सात स्वर, सात सौ सात ग्रंथियां, सात सौ सात प्रपात, सात सौ सात स्वप्न और अस्सी लाख छोटे एवं बड़े कल्प हैं, जिनमें मूर्ख और पण्डित जन उन तक जाकर, पहुंचकर दुःखों का अन्त कर सकेंगे। यदि कोई कहे कि इस शील व्रत या तप अथवा ब्रह्मचर्य से, मैं अपरिपक्व कर्म को परिपक्व करूंगा या परिपक्व कर्म भोग कर उसका नाश करूंगा। सुख और दुःख तो द्रोण (नाप) से तुले हुए हैं अर्थात् इतने निश्चित हैं कि उन्हें कम या अधिक नहीं किया जा सकता। जैसे कि सूत का गोला दूर फेंकने पर उसके पूरी तरह खुल जाने तक वह आगे बढ़ता जायेगा, उसी प्रकार मूर्ख और पण्डित-दोनों को 'संसारचक्र में पड़कर ही दुःखों का अंत करना होगा (दीघनिकाय, I.2.19-20, पृ. 59-60 बौ.भा.वा.प्र. [448])। इस सिद्धान्त का मूल यही है कि प्राणी के दुःख का अन्त अनेक जन्मों में निश्चित समय के लिए परिभ्रमण में, शुद्धि की प्रक्रिया सन्निहित है। परिवृत्य परिहार
भगवती में मंखलि गोशालक के ‘पउट्ट-परिहार' सिद्धान्त का उल्लेख हुआ। गोशालक के 'पउट्ट-परिहार' सिद्धान्त के अनुसार-सभी जीव मरकर उसी शरीर में उत्पन्न हो सकते हैं। गोशालक की ऐसी धारणा 'परिवृत्य परिहार' नाम से जानी जाती है। गोशालक के इस सिद्धान्त में आस्था बनने के कुछ कारण रहे हैं। गोशालक एक बार भगवान् महावीर के साथ सिद्धार्थग्राम से कूर्मग्राम की ओर जा रहे थे। मार्ग में पत्र-पुष्पयुक्त तिल का पौधा मिला। उसको देखकर गोशालक ने पूछा-भगवन्! यह तिल का पौधा फलित होगा या नहीं? पौधे पर लगे सातों फूलों के जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होंगे? भगवान् महावीर बोले-'गोशालक' यह तिल का पौधा फलित होगा तथा ये सात तिलपुष्प के जीव मरकर इसी पौधे की एक फली में सात तिल होंगे। गोशालक ने इस बात को असत्य प्रमाणित करने के लिए उस तिल के पौधे को समूल उखाड़कर एक