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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
एकाक्षर अर्थात् ओमकार को ही परमब्रह्म परम तप मानते थे तथा प्राणायाम भी ओमकार का ही करते थे । ये परिव्राजक अपना सिर मुण्डित रखते थे तथा एक वस्त्र धारण करते थे । गायों द्वारा उखाड़ी गई घास से अपने शरीर को आच्छादित करते, जमीन पर सोते तथा अकेले रहते थे ( वशिष्ठधर्म, 10.2, 5-12 [402]) |
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इस प्रकार परिव्राजकों का अद्भुत तपस्वी जीवन था । वस्तुतः प्राचीन काल में दर्शन विवाद का विषय नहीं था । उसका स्वरूप था - जीवन दर्शन । उस समय दर्शन जीया जाता था । आज उसे जीने का प्रयत्न कम है, किन्तु वह चर्चा का विषय अधिक है ।'
रीज. डेविड्स' का मानना है कि ये भ्रमणशील साधु थे, जो वर्ष के आठ व ह. भ्रमण में बिताते थे । वे प्रायः सभाओं जैसे स्थान में रुकते थे, जहां दार्शनिक एवं धार्मिक प्रश्नोत्तर होते रहते थे, जो सबके लिए खुले थे । जहाँ महिलाएँ भी जा सकती थीं और विचारों को व्यक्त करने की पूरी स्वतन्त्रता थी । इसके अतिरिक्त वे घर-घर भिक्षा एकत्रित कर भिक्षा के आहार पर जीवनयापन करते थे ।
बी. एम. बरुआ परिव्राजक और गेरुअ समण के बारे में उल्लेखित करते हैं कि वे विचरण करने वाले ब्राह्मण विश्व के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले लोगों की भाषा और रीति-रिवाजों को सीखने की स्थिति में थे । सभ्यता के उन प्रारम्भिक युगों में जब न मुद्रण मशीन थी और न एक देश से दूसरे देश जाने के लिए आवागमन के साधन थे, ज्ञान के तत्त्वों को जानने व प्रचारित करने के वैज्ञानिक प्रयोजन के लिए ऐसी यात्राओं के अलावा दूसरा कोई साधन नहीं था ।
उक्त तथ्य में यद्यपि आंशिक सत्यता तो है कि वे परिव्राजक गेरुअ समण आदि ज्ञान के तत्त्वों को जानने एवं प्रचारित करने के लिए यात्रा आदि करते थे किन्तु इसके पीछे उनका साधना पक्ष भी प्रमुख था । अर्थात् पैदल विहार उनकी साधना चर्या का अंग था, जो सिद्धान्ततः कर्म निर्जरा तथा सिद्धि . प्राप्त करने हेतु प्रायोगिक प्रयत्न था ।
1. आचार्य महाप्रज्ञ, इक्कीसवीं शताब्दी और जैनधर्म, पृ. 168.
2. Buddhist India, p. 111.
3. A History of Pre-Buddhistic Indian Philosophy, p. 350.