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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
सार्वभौम नियम, यूनिवर्सल लॉ। इसमें कोई अपवाद नहीं होता। वह सब पर समान रूप से लागू होता है। वह चेतन और अचेतन-सब पर लागू होता है। उसमें अपवाद की कोई गुंजाइश नहीं होती।"l
___ जगत् के भी हजारों शाश्वत नियम हैं। उसमें अपवाद नहीं होता। जैसे गीता में कहा है-'जातस्य हि धुवो मृत्युधुवं जन्म मृतस्य च। जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मरे हैं उनका जन्म भी निश्चित है। जन्म और मरण दोनों अनिवार्य नियति हैं। प्रत्येक प्राणी की यह नियति है। यदि हम 'मरण' शब्द को छोड़ दें तो अचेतन में भी नियति है। कोई भी अचेतन द्रव्य शाश्वत नहीं है। वह बदलता है, बदलता रहता है।
अचेतन जगत् में जन्म और मृत्यु न कहकर उत्पाद और व्यय कहा है। इसका अर्थ है उसका एक रूप बनता है, दूसरा नष्ट हो जाता है। एक रूप का उत्पाद कहा है और दूसरे का व्यय होता है, नाश होता है। मनुष्य का बनाया हुआ नियम शाश्वत नहीं होता, नियति नहीं होता। नियति शाश्वत है। उसके नियम स्वाभाविक और सार्वभौम होते हैं। वे अकृत हैं। बनाए हुए नहीं है, इसीलिए शाश्वत है।
__नियतिवाद की प्राचीन व्याख्या से हटकर मैंने यह नई व्याख्या प्रस्तुत की है। मैं जानता हूं कि यह नियतिवाद की वैज्ञानिक व्याख्या है। जैनदर्शन ने इसी व्याख्या को स्वीकारा है।
जैन दर्शन में भी कथंचित् नियति का प्रवेश है। इसकी पुष्टि काललब्धि, सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय के सिद्धान्तों से होती है। कथंचित् नियति को जैनदर्शन में स्वीकार करते हुए भी काललब्धि, सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय को एकान्त नियतिवाद से पृथक् सिद्ध किया जा गया है क्योंकि जैन दर्शन में नियति को कारण मानते हुए भी उसमें काल, स्वभावादि अन्य कारणों को भी स्थान दिया गया है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने वाड्.मय में नियति की व्याख्या सार्वभौम नियम के रूप में की है। जिसे स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है, किन्तु यह प्राचीन परम्परा में प्रतिपादित नियति के स्वरूप से भिन्न है।
1. आचार्य महाप्रज्ञ, कर्मवाद, आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, चूरू, राजस्थान, 1999, पृ. 116. 2. वही, पृ. 117-118. 3. वही, पृ. 119-120.