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नियतिवाद
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एक अन्य स्थान पर आचार्यश्री महाप्रज्ञ नियति को नियमवाद बताते हैं । उसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं- “सत्य की खोज का अर्थ है नियमों की खोज । नियमों की खोज ही सत्य की खोज है। वैज्ञानिक पहले नियम को खोजता है, फिर नियम की खोज के आधार पर कार्य करता है। धर्म के क्षेत्र में कहा गया- नियमों की खोज करो। जैनदर्शन ने नियमों को खोजा है और नियमों का काफी विस्तार किया है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- ये चार दृष्टियाँ जैनदर्शन में ही उपलब्ध हैं, अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं है । उत्तरकाल में जैनाचार्यों ने इनका विकास किया। चार आदेशों के स्थान पर पांच समवायों का विकास हुआ है- स्वभाव, काल, नियति, पुरुषार्थ, भाग्य या कर्म । ये पांच समवाय चार दृष्टियों का विकास है। इन पंच समवायों को समाहित किया जाये तो ये सारे चार दृष्टियों में समाहित हो जाते हैं । अगर विभक्त किया जाए तो ये पांच उत्तरवर्ती दृष्टियाँ और चार पूर्ववर्ती दृष्टियाँ - नौ नियम प्रस्तुत होते हैं। इन दृष्टियों के द्वारा समीक्षा करके ही किसी सचाई का पता लगाया जा सकता है, किसी घटना की समीक्षा या व्याख्या की जा सकती है। इनके बिना एकांगी दृष्टिकोण से वास्तविकता का पता नहीं चलता, मिथ्या धारणाएं पनप जाती हैं।"" मिथ्या एकान्तवाद से बचने के लिए नियमवाद का सिद्धान्त बहुत महत्त्वपूर्ण है । यह सत्य की खोज का सिद्धान्त है ।
इससे स्पष्ट रूप से फलित होता है कि नियति-नियमवाद - सार्वभौम जागतिक नियमों की शक्ति है । दर्शन भी प्रसंगानुसार इन नियमों का विश्लेषण प्रस्तुत करता रहता है ।
5. जैन और बौद्ध परम्परा में आजीवक आचार : एक तुलनात्मक दृष्टि निर्ग्रन्थों और आजीवकों में समानताएँ
यद्यपि निर्ग्रन्थ और आजीवक परम्परा सिद्धान्ततः तो एक-दूसरे से ज्यादा समीप नहीं हैं तथापि कुछेक आचारों को लेकर इन दोनों में साम्यता देखी जा सकती है। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में मंखली गोशाल और उसकी आजीवक आचार नियम विधि का विस्तार से विवेचन मिलता है । जैसे -निर्ग्रन्थ परम्परा में एक साधक की भिक्षाचर्या के विशेष नियम होते हैं, वैसे ही 1. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन दर्शन और अनेकान्तवाद, आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, चूरू, राजस्थान, 1973, q. 123-124.
2. देखें,. सातवें अध्याय महावीरकालीन प्रचलित सिद्धान्तों में श्रमणों के मुख्य पांच मतों में निर्ग्रन्थ ।