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सांख्यमत
3. सांख्यमत की जैनदृष्टि से समीक्षा
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अकारकवाद का निरसन
अकारकवाद के विरुद्ध सूत्रकृतांग का यह उल्लेख कि सब कुछ करने, करवाने पर भी आत्मा अकर्ता होता है, ऐसी स्थिति में यह संसार कैसे घटित होगा। इस प्रकार अक्रियावादी, महावीर के मत में पुरुषार्थहीन होकर हिंसा से बंधकर निरन्तर आरम्भ युक्त होकर घोर अंधकार में चले जाते हैं (सूत्रकृतांग, 1.1.1.14 [403])। यह उल्लेख भगवान् महावीर के समय अथवा सूत्र रचना युग में सांख्यमत मानने वाले के लिए अहिंसा सिद्धान्त को नहीं मानने वाला सिद्ध करता है।
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ये अकारकवादी (सांख्यमतावलंबी) अमूर्तत्त्व-निराकारता, नित्यत्व, अविनश्वरता तथा सर्वव्यापकता इन्हें आत्मा के गुण मानते हैं। इस आधार पर वे आत्मा को नित्य अमूर्त सर्वव्यापी कहते हैं, निष्क्रिय मानते हैं । निर्युक्तिकार के मत में अकृत का वेदन कौन करता है ? ( अगर अकृत का वेदन हो तो) कृतनाश की बाधा आयेगी । पाँच प्रकार की गति - नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव तथा मोक्ष भी नहीं होगी । देव या मनुष्य आदि में गति - आगति भी नहीं होगी । जातिस्मरण आदि क्रिया का भी अभाव होगा (सूत्रकृतांगनिर्युक्ति, गाथा - 34 [404])।
सांख्यदर्शन में कर्तृत्व और भोक्तृत्व का आधार अलग-अलग माना गया है, जो परस्पर विरोधाभाषी मान्यता है क्योंकि उनके यहां कर्तृत्व को प्रकृति के अन्तर्गत माना गया है और भोक्तृत्व पुरुष के अन्तर्गत । इस मान्यता के अनुसार तो कर्ता कोई और होगा और उसका परिणाम का भागी कोई और बनेगा। दूसरी समस्या यह आ जाएगी कि पुरुष चेतनावान होकर भी जानने की क्रिया में असमर्थ होगा। ऐसी स्थिति में, उसमें न बंधन होगा, न मुक्ति की ही बात । किन्तु प्रकृति ही बंधन तथा मुक्ति आदि अवस्थाओं से गुजरेगी (सांख्यकारिका, 62 [405 ]), जो सिद्धान्त विरुद्ध कथन है।
ऐसी स्थिति में शीलांक का कहना है कि सांख्यवादी संन्यासी, जो कषायवस्त्र धारण, शिरोमुण्डन, दण्डधारण, भिक्षान्न ( भिक्षा में प्राप्त भोजन ) तथा पंचरात्रोपदेश (पंचरात्र नामक अपने शास्त्र के उपदेश) के अनुसार यम नियमादि का पालन करते हैं, वे समस्त अनुष्ठान व्यर्थ हो जायेंगे तथा पच्चीस तत्त्वों (प्रकृति, महत्, अंहकार, पंचतन्मात्राएँ, दस इन्द्रियाँ, एक मन, पंचमहाभूत