________________
नियतिवाद
159
प्राचीन वाङ्मय का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि नियतिवाद मंखलीपुत्र गोशालक की मान्यता के रूप में ही नहीं, अपितु भारतीय मनीषियों की बहुसम्मत मान्यता के रूप में प्रतिष्ठित रहा है। वेद, महाभारत, रामायण, पुराण, उपनिषद्, आगम, त्रिपिटक, संस्कृत महाकाव्य एवं नाटकों आदि में भी नियति के महत्त्व को स्पष्ट करने वाले उल्लेख उपलब्ध होते हैं। यहीं नही पाश्चात्य दार्शनिकों, नाटककारों आदि की रचनाओं में भी नियति के दर्शन होते हैं।
प्रस्तुत सन्दर्भ में आगम से सम्बन्धित चर्चा ही विषयानुकूल है।
आगमों में अन्य मतों से संबंधित विवरण सूत्र रूप या संक्षेप में ही प्राप्त होते हैं, किन्तु जैन आगमों में नियतिवादी अवधारणा का और मंखली गोशाल के व्यक्तित्व जीवनचर्या से संबंधित विस्तृत विवरण प्राप्त होते हैं। कारण यही है कि यह मत उस समय बहुत व्यापक रूप से प्रचलित था। वस्तुतः आजीवकों के सिद्धान्त प्रकृति की सम्प्रभुता (नियति) को स्वीकार करने के कारण अपने समकालिक विपक्षी सम्प्रदायों की अपेक्षा अधिक मजबूती से अपना पक्ष प्रस्तुत करता है।
सूत्रकृतांग में किन्हीं मतवादियों के अनुसार इस जगत् में सभी जीवों का अस्तित्व अलग-अलग है तथा वह पृथक्-पृथक् सुख-दुःख का वेदन करते हैं और पृथक्-पृथक् ही अपने स्थान से च्युत होते हैं (सूत्रकृतांग, I.1.2.28 [417])। अर्थात् वह जीव (आत्मा) की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता है तथा उसका पुनर्जन्म भी मानता है। इस प्रकार यहाँ पंचभूतवादी, तज्जीव-तच्छरीरवादी एवं एकात्मवादी मतों का खण्डन हो जाता है। इस सिद्धान्त का विश्लेषण करते हुए बताया गया है कि वह सुख दुःख को स्वकृत एवं अन्यकृत भी नहीं मानता, चाहे वह सुख-दुःख सिद्धि योग्य अर्थात् निर्वाण का हो या असिद्धिकारक अर्थात् सांसारिक हो। सभी जीव स्वकृत तथा अन्यकृत सुख दुःख का भी वेदन नहीं करते, बल्कि वह सुख दुःख सांगतिक होता है (सूत्रकृतांग, I.1.2.29-30 [418] )। सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में नियतिवाद को चौथे पुरुष के रूप में परिगणित कर कहा गया है कि वे नियतिवादी क्रियावाद और अक्रियावाद दोनों में विश्वास नहीं करते। उनकी दृष्टि यह है कि कुछ लोग क्रिया का प्रतिपादन करते हैं और कुछ अक्रिया का प्रतिपादन करते हैं। ये दोनों समान हैं। 'मैं करता