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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
जैन दर्शन में काललब्धि एवं सर्वज्ञता ऐसे प्रत्यय है जो जैन दर्शन में कंथचित नियति को स्वीकृत करते हैं । जैन दर्शन की यह मान्यता है कि अनादिकालीन मिथ्यादृष्टि जीव काललब्धि आने पर ही सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है। काललब्धि से आशय है समुचित काल की प्राप्ति । उसका होना नियत होता है। तभी काललब्धि होती है । इसी प्रकार सर्वज्ञता को तीनों कालों के समस्त द्रव्यों एवं उनकी पर्यायों को जानने के रूप में स्वीकार किया जाता है तो भी भावी को जानने के कारण नियतता का प्रसंग उपस्थित होता है। इस नियतता के आधार पर ही विगत शताब्दियों में जैन दर्शन में क्रमबद्ध पर्याय सिद्धान्त का विकास हुआ है । सर्वज्ञता का आत्मज्ञता अर्थ स्वीकार करने पर उपर्युक्त स्थिति नहीं बनती, तथापि जैन परम्परा में नियति को कारण मानने के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं ।
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कर्म और पुरुषार्थ के प्रभावों का अति विस्तृत विवेचन अनेक स्थानों पर है। सामान्य स्थिति में कर्म के (विपाक ) उदय के परिणामस्वरूप होने वाले समस्त परिणमन कर्म की शक्ति को स्पष्ट रूप से प्रकट करते हैं । कर्म की उदीरणा, अपवर्तना, उद्वर्तना, उपशम, संक्रमण आदि करणों द्वारा कर्म की अवस्था में आनीत परिणमन पुरुषार्थ की सत्ता के ज्वलन्त उदाहरण हैं ।
"नियति" के विषय में सामान्य रूप से यही धारणा है कि जो भवितव्य है, होनहार है, वही नियति है । यदि सब कुछ नियति से नियत है, फिर तो पुरुषार्थ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है । पुरुषार्थ भी यदि नियति के द्वारा ही नियंत्रित है, तो वह पुरुषार्थ पुरुषार्थ कैसे कहा जा सकता है?
पूर्ण नियतिवादी कभी कर्म में विश्वास नहीं करते । किन्तु मंखली गोशाल ने कर्म की शक्ति में विश्वास किया है, क्योंकि अगर वह कर्म में विश्वास न करे तो यह उसके सिद्धान्त के नैतिक शक्ति के नष्ट होने का प्रश्न था । यद्यपि उसके अनुसार कर्म को धर्म द्वारा या व्रत के आचरण, तपस्या या ब्रह्मचर्य द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता था, तथापि वह कर्म से इन्कार भी नहीं करता था ।
काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (कर्म), एवं पुरुष ( चेतन तत्त्व, आत्मा, जीव) इन्हें एकान्त कारण मानने पर ये मिथ्यात्व के द्योतक हैं तथा इनका सामासिक (सम्मिलित) रूप सम्यक्त्व कहलाता है ।