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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
गोशाल के मत में आजीव शब्द का तात्पर्य साधु वर्ग के लिए था, जो कर्मों के बंधन से पूरी तरह मुक्त है ।' धीरे-धीरे बाद में इसका अर्थ बदल गया । संभवतः उसने अपने आप को उच्च दिखाने के लिए यह अर्थ लिया है ।
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जैन और बौद्ध उल्लेख इस तथ्य का समर्थन नहीं करते हैं और गोशालक विकृत व्यक्तित्व का प्रतिपादन करते हैं । इसका आगे विवेचन किया जाएगा। इस प्रकार उनकी तपस्या सिद्धि प्राप्ति के लिए नहीं थी, अपितु आजीवका उनका प्रमुख प्रश्न था । यह भी हो सकता है कि प्रारम्भ में आजीवक नाम जीविकापरक था, बाद में वह सम्प्रदाय रूप में व्यवहृत होने लगा हो ।
3. जैन आगमों में नियतिवाद का प्रतिपादन
आजीवक दर्शन का आधारभूत सिद्धान्त भाग्य था, जिसे नियति कहा जाता था । जैन एवं बौद्ध स्रोत एक मत से गोशाल को कट्टर अथवा एकान्त नियतिवादी मानते थे । वह नियति को एकमात्र ऐसा तत्त्व मानता था जो इस ब्रह्माण्ड (Universe) में सब परिर्वतनों का कारण है । व्यक्ति के बुरे कर्मों का फल चाहे वे वर्तमान जीवन मे किये हों अथवा पूर्वजन्म में, वे दुःख एवं पीड़ा हैं ऐसा अन्य सम्प्रदायों द्वारा स्वीकार किया जाता है । इस तथ्य को गोशाल भी बिना किसी कारण और आधार के स्वीकार करता है । नियतिवाद का अर्थ है - जो, जब, जिसके द्वारा, जिसका, जिस नियम से होने वाला है, वह उसी काल में, उसी के द्वारा, उसी रूप से, उसी नियम से होता है, ऐसा मानना नियतिवाद है (गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), 882 [ 412 ] ) । प्राचीन वैदिक, बौद्ध और जैन परम्पराओं में नियति को कोई उचित स्थान प्राप्त नहीं था । व्यक्ति का भाग्य, उसका सामाजिक स्तर, उसके सुख-दुःख सभी उसकी इच्छा पर निर्भर है। भारतीय कर्म का सिद्धान्त, जैसा कि उसे सामान्यतः व्याख्यायित किया जाता है कि व्यक्ति अपनी इच्छा की स्वतंत्रता के अनुसार कार्य कर सकता है। व्यक्ति की वर्तमान परिस्थिति किसी अपरिवर्तनीय सिद्धान्त (एकान्त नियति का सिद्धान्त) से संचालित नहीं होती है अपितु उसके स्वयं के कर्मों से चाहे वे वर्तमान जीवन में किये हों अथवा पूर्व जीवन में, से संचालित होती है। सम्यक्
1. Basham, History and Doctrines of the Ajivikas, pp. 101-102.
2. For more detail see, Ibid, pp. 101-104.