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नियतिवाद
दोनों साथ रहे। इस अवधि के दौरान गोशालक ने महावीर से तेजोलेश्याविधि सीखी, इसके अंहकारवश वह अपने आप को जिन मानने लगा। बाद में सैद्धान्तिक मतभेद के कारण गोशाल महावीर से पृथक् हो गया और श्रावस्ती चला गया। वहाँ उसने छः दिशाचरों से अष्टांग निमित्त की विद्या सीखी और उस अष्टांग महानिमित्त तथा दो मग्ग (मार्ग)' को मिलाकर आजीवक ग्रन्थों का संकलन किया, ऐसा संभव लगता है ।
इस सम्प्रदाय ने आत्म अस्तित्व अथवा आत्माओं के देहान्तरण या पुनर्जन्म की अवधारणा में पूर्ण आस्था की घोषणा की थी। जहां कुछ सम्प्रदायों ने इस बात को मान्यता दी कि पुनर्जन्म के क्रम में मनुष्य स्वयं को बेहतर बना सकता है । आजीवक मत का कहना था कि समूचे ब्रह्माण्ड के क्रियाकलाप, नियति नामक ब्रह्मांडीय शक्ति से संचालित होते हैं, जो सभी घटनाओं का निर्धारण करती है। इसलिए सूक्ष्मतर स्तर पर मनुष्य का भाग्य भी इसी से निर्धारित होता है और इसमें परिर्वतन या सुधार की गति को तेज करने के व्यक्तिगत प्रयासों का कोई स्थान नहीं है । जिस प्रकार धागे का गोला फेंके जाने पर अपनी पूरी लंबाई तक खुलता है, उसी प्रकार मूर्ख और बुद्धिमान अपने-अपने पथ पर जायेंगे। मनुष्य की स्थिति के इस विषादमय विचार के बावजूद आजीवक मतावलंबी संयम और तप का जीवन व्यतीत करते थे, वह किसी उद्देश्यपूर्ण लक्ष्य के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि उनकी नियति यही है ।
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बाशम के अनुसार जैन और बौद्ध के अतिरिक्त आजीवक भी नास्तिक मत वाले थे, जिनका उदय 600 ई.पू. की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों में हुआ। इनमें किन्हीं बातों को लेकर समानताएँ थीं- ये तीनों आर्यों की बलि प्रथा को नकारते थे, दूसरा उपनिषद् में वर्णित मठ-चर्या, तपस्या के सिद्धान्तों को नकारते थे। तीसरा यह जगत् प्राकृतिक नियमों से संचालित है, इस बात के विश्वासी थे । यह कुछ ऐसा ही था, जैसे प्राचीन आयोनिया (Ionia) ग्रीक दार्शनिक थे, जो इन तीनों के समकालीन थे और आजीवक का नियतिवाद इन प्राकृतिक ग्रीक दार्शनिकों से और भी अधिक समीप था। वस्तुतः आजीवक सम्प्रदाय और गोशालक का सम्बन्ध श्रमण परम्परा के मूल में था जैसा कि बाशम का भी मानना था कि आजीवक सम्प्रदाय
1. देखें, भगवती का 15वाँ शतक ।
2. Basham, History and Doctrines of the Ajivikas, p. 6.