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सांख्य
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सोमिलब्राह्मण (पार्श्वनाथकालीन) का उल्लेख मिलता है, जो षष्टितंत्र में विशारद थे। आचार्य महाप्रज्ञ के मत में ऐसा शैलीगत वर्णन के कारण अर्थात् लिपिकों के प्रमाद के कारण जाव पद का विपर्यय होने से हुआ है । षष्टितन्त्र की रचना महावीर के निर्वाण के पश्चात् ईसा की तीसरी शताब्दी में मानी गई है। महावीरकालीन तथा महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के समय में हुए परिव्राजक और माहण के लिए भी 'सट्ठितंतविसारए' का उल्लेख मिलता है । '
6ठी ई. शताब्दी में भद्रबाहु द्वितीय ने श्रमण के बीस पर्यायवाची नाम बताए हैं (दशवैकालिकनिर्युक्ति, 158 159 [401] ) - प्रवजित अणगार, पासत्थ, चरक, तापस, भिक्षु, परिव्राजक आदि -आदि । उसमें चरक और परिव्राजक दोनों का समावेश है। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि ये दोनों श्रमण सम्प्रदाय के अंग हैं ।
आचार्य महाप्रज्ञ के अभिमतानुसार प्रारम्भ में परिव्राजक तथा चरक सांख्यमत से संबंधित थे । उत्तरकाल में उनका विस्तार हो गया । '..
दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय एवं अंगुत्तरनिकाय में अनेक परिव्राजकों तथा उनकी साधनाचर्या का विस्तृत उल्लेख मिलता है, जो बुद्ध के समकालीन थे, जैसे-पोट्ठपाद, दीघनख, सकुल उदायी, अन्नभार, वरधर, पोटालिय या पोटलिपुत्र, उग्गहमान, बेखहनस्स, कच्चान, मागण्डिय, सन्दक, उत्तिय, तीन वच्छगोत्तत्स, सभिय और पिलोतिक वच्छायन । इसके अतिरिक्त उस समय अनेक ब्राह्मण परिव्राजक आचार्यों का भी उल्लेख आता है, जैसे - पोक्खरसति, सोनदण्ड (शोनक), कूटदन्त, लोहिच्छ, कंकि ( चंकि ), तरुक्ख ( तारुक्ष्य), जानुस्योनि (जातश्रुति), तोदेय्यम, तोदेय्यपुत्र या सुभ, कापठिक भारद्वाज, वासेट्ठ, अस्सलायन, मोग्गल्लान, पारासरिय, वस्सकार आदि ।
वशिष्ठ धर्मसूत्र के अनुसार परिव्राजक सर्व प्राणियों को अभय प्रदान करते थे तथा प्राप्त दान के द्वारा जीवन निर्वाह करते थे । वेदों के अध्ययन से
1.
. युवाचार्य महाप्रज्ञ, आगम संपादन की समस्याएँ, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा प्रकाशन, कलकत्ता, 1993, पृ. 86-87.
2. भगवई, 1.2.113 का टिप्पण, पृ. 69.
3. For more detail about Paribrājakas spritual practice see, Bimala Churn Law, Gautam Buddha and the Paribrājakas (An Article) Buddhistic Studies, Indological Book House, Delhi, 1983, pp. 89-112.