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एकात्मवाद
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जाता है, न जलाया जाता है और न मारा जाता है (गीता, 2.24 [291])। लौकिक दृष्टि से शरीरावस्था में वह शस्त्र आदि से नहीं छेदा जाता और लोकोत्तरदृष्टि से शरीरमुक्त (सिद्ध) अवस्था में भी वह अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अवन्ध्य होता है।
सभी स्वर वहाँ से लौट आते हैं जहाँ न कोई तर्क है। ऐसी वह आत्मा मति के द्वारा भी ग्राह्य नहीं है (आचारांगसूत्र, I.5.6.123-125 [292])। अमूर्त आत्मा शब्द, तर्क और मति का विषय नहीं है। वह इनसे परे है। जैसा कि उत्तराध्ययन में भी कहा गया है कि यह इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता, क्योंकि अमूर्त है (उत्तराध्ययन, 14.19 [293])। और यही बात उपनिषद् साहित्य में भी आती है कि वहाँ न आँख जाती है, न ही वाणी और न ही वहाँ मन की पहुँच है। वाणी वहाँ पहुँचे बिना ही मन के साथ लौट आती है (I. केनोपनिषद्, 1.3, II. तैत्तिरीयोपनिषद्, 2.2 [294])।
वह आत्मा (शुद्ध आत्मा) न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न गोल है, न त्रिकोण, न चतुष्कोण और न परिमण्डल। वह न काला है, न नीला, न लाल, न पीला
और न सफेद है। वह न सुगंधयुक्त है और न दुर्गंधयुक्त। वह न तीखा है, न कडुआ, न कसैला, न खट्टा है और न मीठा है। वह न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु (भारी) है, न लघु (हल्का) है, न ठण्डा है, न गर्म है, न चिकना है, न रुखा है। वह कायवान (शरीरी) नहीं है। वह जन्मधर्मा नहीं है, वह संघ (निर्लेप) है। वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है (आचारांगसूत्र, I.5.6.127-135 [295])। श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी कहा गया है कि जीव वस्तुतः न स्त्री है, न पुरुष और न ही नपुंसक। अपने कर्मों के अनुसार वह जिस-जिस शरीर को धारण करता है, उससे उसका सम्बन्ध हो जाता है (तुलना, श्वेताश्वतरोपनिषद्, 5.10 [296])। वह आत्मा परिज्ञा संज्ञा वाला है अर्थात् सर्वत्र चैतन्यमय है। वह उपमा से अतीत है, ऐसी वह आत्मा अरूपी (अमूत) सत्ता वाली है, पदातीत है, जो न शब्द है, न रूप, न गंध, न रस और न ही स्पर्शयुक्त (आचारांगसूत्र, I.5.6.136-140 [297])।
उक्त गुणधर्म पुद्गल के हैं और आत्मा विशुद्ध रूप से पुद्गल रूप न होने के कारण वह इन सभी गुणों से परे है। अर्थात् वह अमूर्त-अरूपी है और यही कारण है कि वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। उक्त वर्णन शुद्धात्मा की अपेक्षा