________________
106
जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
पर यदि बड़े बर्तन का आवरण डाल दिया जाए तो वह प्रभा बर्तन के अंदर ही सिमट जायेगी। यदि बर्तन हटा लिया जाए तो वह फिर पूरे कमरे में फैल जाती है। इसी तरह आत्मप्रदेश सब जीवों में समान होने पर भी वे हाथी में हाथी शरीर प्रमाण और कुंथु में कुंथु शरीर प्रमाण हो जाते हैं (भगवती, 7.8.159 [302])। वैसे ही आत्मा भी जिस देह में रहता है, उसे चैतन्याभिभूत कर देता है, किन्तु यह बात केवल संसारी आत्मा के सम्बन्ध में है। मुक्तात्मा का आकार अपने त्यक्त देह का दो तिहाई होता है (उत्तराध्ययन, 36.64 [303])।
___ आत्मा कर्ता-भोक्ता है-जैन आगमानुसार आत्मा स्वयं अपने कर्मों का कर्ता और उसके सुख-दुःखादि रूप फल का भोक्ता है। सूत्रकृतांग में आत्मा को अकर्ता मानने वाले लोगों के विरोध में स्पष्ट रूप से कहा गया है-जो लोग धृष्टतापूर्वक कहते हैं कि करना, कराना आदि क्रिया आत्मा नहीं करता, वह तो अकर्ता है। इन वादियों को सत्य ज्ञान का पता नहीं और न ही उन्हें धर्म का ही भान है (सूत्रकृतांग, I.1.1.13-21 [304])।
आत्मा का कर्ता स्वरूप दिखाते हुए आत्मा को वेतरणी नदी, शाल्मली वृक्ष, कामधेनु तथा नन्दनवन इन उपमाओं से उपमित किया गया है (उत्तराध्ययन, 20.36 [305])। इसी आगम में कहा गया है कि आत्मा ही सुख और दुःखों का कर्ता और भोक्ता है (उत्तराध्ययन, 20.37 [306])। उससे भी आगे यहां तक कहा गया है कि सिर काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना दुराचरण में प्रवृत्त अपनी आत्मा करती है (उत्तराध्ययन, 20.48 [307])।
अनेक प्रकार के कर्म करके (उत्तराध्ययन, 2.2 [308])। किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता (उत्तराध्ययन, 4.3, 13.10 [309])। कर्म कर्ता का अनुसरण करता है (उत्तराध्ययन,13.23 [310])। शरीर को नौका तथा जीव को नाविक कहा है (उत्तराध्ययन, 23.73 [311])। इत्यादि बातें जीव के कर्तृत्व भोर्तृत्व को प्रदर्शित करती है। ___ जैसे आत्मा का कर्तृत्व कर्म-पुद्गलों के निमित्त से सम्भव है, वैसे ही आत्मा का भोक्तृत्व भी कर्म-पुद्गलों के निमित्त से ही सम्भव है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व-दोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में पाये जाते हैं, मुक्तात्मा या शुद्धात्मा में नहीं। जैन दर्शन आत्मा का भोक्तृत्व भी सापेक्ष दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा में स्वीकार करता है।