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सांख्यमत
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आर्द्रक सांख्यों के इस मत का समाधान इस प्रकार करता है - वह कहता है आत्मा को सर्वव्यापी, अविकारी मानने पर जीव कभी मरेंगे नहीं, मरने से भव भ्रमण भी नहीं होगा ऐसी स्थिति में ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और न प्रेष्य होंगे, न कीट, न पक्षी और न सर्प तथा मनुष्य, देवलोक आदि गतियां भी (सूत्रकृतांग, II.6.48 [391])। इस प्रकार वह सांख्यों के मत का खण्डन कर देता है ।
भगवती में श्रावस्ती के गद्दभाल के प्रमुख शिष्य परिव्राजक आर्य स्कन्दक का उल्लेख है। वे वेद-वेदांग के पंडित थे तथा इन्हें षष्टितंत्र में विशारद कहा है। वे परिव्राजकों के मठ से त्रिदंड, कुंडिका, रूद्राक्ष की माला, मिट्टी का कपाल, आसन, साफ करने का वस्त्र, तिपाई, आंकडी, तांबे की अंगूठी, कलाई का आभरण लेकर, गेरुए वस्त्र धारण कर, जूते पहन भगवान महावीर के दर्शनार्थ गए और प्रतिबोधित हो महावीर के पादमूल में प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते हैं (भगवती, 2.1.24, 31 [392 ] ) । पुद्गल नामक परिव्राजक का उल्लेख भी इसी ग्रन्थ में मिलता है। वे आलभिया नगरी में ठहरे हुए थे । ये भी वेद-वेदांग तथा षष्टितंत्र में विशारद प्राप्त थे और निरन्तर बेले - बेले ( दो दिन का उपवास) के तप की साधना के द्वारा दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने भूमि में आतापना लेता हुआ विहरण कर रहे थे। अंत में महावीर से प्रतिबोधित हो स्कन्दक की भांति प्रव्रज्या स्वीकार करते हैं (भगवती, 11.12.186, 197 [393]) |
इन प्रसंगों से यह ज्ञात होता है कि सांख्य परिव्राजक और निर्ग्रन्थों में खुलकर चर्चाएँ होती रहती थीं। एक-दूसरे के तत्त्वों को जानने की भी इच्छा रहती थी ।
ज्ञाताधर्मकथा में शुक नामक परिव्राजक का उल्लेख मिलता है । वह चार वेद, षष्टितंत्र और सांख्यदर्शन का पंडित था । पांच यम और पांच नियमों से युक्त वह दस प्रकार के परिव्राजक धर्म तथा दानधर्म, शौचधर्म और तीर्थाभिषेक का उपदेश करता हुआ गेरुए वस्त्र पहन, त्रिदंड, कुंडिका आदि लेकर पांच सौ
1. वृत्तिकार के मत में परिव्राजक धर्म (पांच यम और पांच नियम ) के दस भेद इस प्रकार हैंयम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अकिंचनता ।
नियम - शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ( ज्ञाताधर्मकथावृत्ति, पत्र- 116-117 [394])।