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क्षणिकवाद
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की जा सकती इसलिए क्षणिकवाद को मानना ही एकमात्र उपाय है। क्योंकि नित्य पदार्थ अर्थक्रिया नहीं कर सकता, अर्थक्रिया अर्थात् किसी के उत्पादन की शक्ति। नित्य पदार्थ में क्रम से या युगपद अर्थक्रिया नहीं हो सकती, इसलिए सभी पदार्थों को अनित्य माना जाए तो उनकी क्षणिकता अनायास ही सिद्ध हो सकती है और पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके विनाश का कारण है। जो पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट नहीं होता, वह बाद में कभी नष्ट नहीं होगा। अतः पदार्थ अनित्य क्षणिक है।
जो पदार्थ क्षणिक है वह अपने सत्य रूप में है जैसे घड़ा, क्योंकि घड़ा वर्तमान क्षण में भूत और भविष्य के क्षणों का कार्य नहीं करता। क्योंकि यह घड़ा भूतकाल और भविष्य के घड़े से अभिन्न नहीं है। अर्थात् दो क्षणों में वह घड़ा भिन्न था। अर्थक्रियाशक्ति जो सत्व का ही दूसरा नाम है, क्षणिकता से सर्वाधिक रूप से सम्बद्ध है।
वस्तुतः जगत् का प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक क्षण विनाश और तिरोधान की प्रक्रिया से गुजरता रहता है। किन्तु पदार्थ फिर भी स्थायी जैसे लगते हैं और ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि पदार्थ के बीच विनाश की क्रिया हो रही है। हमारे शरीर, शरीरगत मनोदशाएँ तथा समस्त बाह्य पदार्थ प्रतिक्षण नष्ट होते रहते हैं और नए पदार्थ उसके अनुवर्ती क्षण में पैदा होते रहते हैं। वे अनुवर्ती क्षण प्रायः पूर्ववर्ती क्षण के समान ही होते हैं और हमें ऐसा लगता है कि ये वही पदार्थ हैं; जैसे-मोमबत्ती की लौ हर क्षण पृथक् होती है, किन्तु हमें लगता है कि यह वही लौ है, जो पहले थी और उसे ही हम देख रहे हैं।
600 ई.पू. में विभिन्न दृष्टियां प्रचलित थीं। कुछ दार्शनिक आत्मा को शरीर से भिन्न मानते थे और कुछ दार्शनिक आत्मा और शरीर को एक मानते थे किन्तु बौद्ध इन दोनों मतों से सहमत नहीं थे। उनका आत्माविषयक अभिमत था कि वही जीव है और वही शरीर है-ऐसा नहीं कहना चाहिए। जीव अन्य है और शरीर अन्य है-ऐसा भी नहीं कहना चाहिए (कथावत्थुपालि, 1.1.91, 92 [359])।
बौद्ध दर्शन में उच्छेदवाद (Nihilism) और शाश्वतवाद (Eternalism) दोनों ही मान्य नहीं हैं। वे केवल विशेष को स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में सामान्य यथार्थ नहीं होता, केवल वर्तमान का क्षण ही यथार्थ होता है। अतीत