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क्षणिकवाद
संस्कार के रूप में वर्णित किया जाता है । कायिक धर्म आश्वास-प्रश्वास ही काय संस्कार है । वितर्क - विचार ही वाक् संस्कार है तथा संज्ञा और वेदना चित्त संस्कार है । शारीरिक, वाचिक और मानसिक कर्मों का यह निरूपण है। इन कर्मों का मूल चेतना व चेतना के साथ संलग्न प्रवृत्तियां हैं। प्रभाव और फल की दृष्टि से भी इनकी व्याख्या की जाती है । ये संस्कार व्ययधर्मा, अनित्य, दुःखरूप और अनात्म हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त में यह श्रृंखला की दूसरी कड़ी है जो विज्ञान को हेतु भाव प्रदान करती है । '
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संस्कार तीन वर्गों में विभाजित है - 1. काय - संस्कार, वाक्-संस्कार, चित्त-संस्कार; 2. पुण्य संस्कार, अपुण्य संस्कार, आनेञ्ज संस्कार । आश्वास-प्रश्वास काय - संस्कार है, वितर्क-विचार वाक्-संस्कार है और 3. संज्ञा तथा वेदना चित्तसंस्कार है ।
काय, चित्त और वाक् - इन्हीं के द्वारा व्यक्ति पुण्य-पाप का संचय करता है, जिनसे सुगति-दुर्गति होती है । इन्हीं संस्कारों से व्यक्ति संसार-भ्रमण में लगा रहता है और इन पांचो स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है।
पिटकेतर पालि ग्रंथों में मिलिन्दप्रश्न एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें आचार्य नागसेन की ग्रीक सम्राट् मीनाण्डर (ई.पू. प्रथम शताब्दी) के साथ प्रश्नोत्तर रूप संवाद् चलता है, जिसमें बौद्धदर्शन के जटिल प्रश्नों, जैसे- अनात्मवाद, क्षणभंगवाद के साथ कर्म, पुनर्जन्म और निर्वाण आदि को सरल उपमाएँ देकर, तार्किक दृष्टि से समाधान प्रदान किया गया है। इसमें पंचस्कन्धरूपी क्षणभंगवाद के संदर्भ में मिलिन्द और नागसेन में एक दार्शनिक संवाद होता है, जिसमें मिलिन्द नागसेन के सम्मुख बैठ जाते हैं और पूछते हैं- “भन्ते, आपका नाम क्या है?" नागसेन कहते हैं- "मुझे लोक में नागसेन नाम से बुलाया जाता है । परन्तु यह नाम केवल व्यवहार के लिये है, तात्त्विक दृष्टि से इस प्रकार का कोई व्यक्ति उपलब्ध नहीं होता ।" मिलिन्द - "भन्ते, यदि यथार्थ में नागसेन कोई व्यक्ति नहीं है तो इन ऐन्द्रियिक विषयों का उपभोग, पाप-पुण्य का कर्ता यहाँ
1. धर्मचन्द जैन एवं श्वेता जैन, बौद्ध दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त, पृ. 28-32.
2. विसुद्धिमग्गपालि, संपा. - स्वामी द्वारिकादास शास्त्री, भाग-3, भूमिका, पृ. viii-ix.