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सांख्यमत
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बुद्धघोष (8वीं-10वीं ई. शताब्दी) के अनुसार यह मत कर्म सिद्धान्त का खण्डन करता है और पुण्य-पाप जैसी कोई वस्तु को नहीं मानता, इस प्रकार कोई भी कर्म किसी फल की प्राप्ति नहीं कराता (सुमंगल विलासिनी-दीघनिकाय टीका, भाग-1, 2.166 [375])। इसे ही अक्रिया का सिद्धान्त कहते हैं।
बी.एम. बरुआ के अनुसार “पूरणकाश्यप आत्म निष्क्रियता के सिद्धान्त का प्रतिपादक है कि किसी क्रिया का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता। यह अच्छे और बुरे से परे था। इस विचार को उसके पूर्ववर्ती विचारकों ने भी प्रतिपादित किया था।"
बौद्ध साहित्य में वर्णित पूरणकाश्यप के विचारों, सिद्धान्तों का जो वर्णन मिलता है, उसे देखकर यह शंका उपस्थित होती है कि इस प्रकार के विचार प्रकट करने वाला एक लोक सम्मानित तीर्थंकर हो सकता है क्या? काटो, मारो, लूटो, चाहे दान, धर्म और सत्य भाषण करो, उसमें न पुण्य है, न पाप। इस प्रकार की बात एक लोक सम्मानित तीर्थंकर द्वारा भाषित नहीं की जा सकती। संभव है उनके विरोधियों द्वारा इस प्रकार की विचारधारा प्रकट की गई हो। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि भगवान बुद्ध के निर्वाण के चार सौ वर्षों बाद तक बुद्ध के उपदेश नहीं लिखे गए थे।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर पूरणकाश्यप के दृष्टिकोण को सम्यग् दृष्टिकोण से देखा, समझा जा सकता है। फिर भी यह बात तो सत्य है कि आत्म अक्रियावाद की धारणा नीतिगत सिद्धान्तों की स्थापना में किसी भी दृष्टि से सही नहीं बैठती।
पूरणकाश्यप के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा हर स्थिति में अक्रिय है, चाहे व्यक्ति कुछ भी गलत करे या सही। इस प्रकार इस सिद्धान्त की स्थापना से व्यक्ति में शुभाशुभ का भान भी नहीं रहेगा। स्वयं प्रकृति भी चेतना एवं शुभाशुभ के विवेक के अभाव में उत्तरदायी नहीं बनती और उत्तरदायित्व के अभाव में नैतिकता, कर्तव्य, धर्म आदि का मूल्य कुछ भी नहीं रह जायेगा।
1. ....According to Kassapa's view, when we act or cause others to act, it is not
the soul that acts or causes others to act. The soul is, in other words, passive (Niskriya). This being the case, whether we do good or bad, the result there of does not affect the soul in the least... That ultimate reality is beyond both good and evil is a view which has been upheld, more or less, by all the previous thinkers, A History of Pre-Buddhistic Indian Philosophy, p. 279.