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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
त्रिपिटक, गीता आदि ग्रन्थों में भी आत्मा तथा लोक की शाश्वतता और सत्कार्यवादी स्वीकृति के प्रमाण प्राप्त होते हैं । पकुधकात्यायन का सात काय का सिद्धान्त इससे सम्बन्धित है । पकुध के अनुसार पृथ्वी, अप, तेज, वायु, सुख-दुःख तथा जीव-ये ही सात पदार्थ हैं, जो अकृत, अनिर्मित तथा कूटस्थ खंभे के समान अचल हैं, जो आपस में सुख-दुःख देने में असमर्थ हैं (दीघनिकाय, I.2.174, [380])।
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आत्मषष्ठवाद पकुधकात्यायन के दार्शनिक पक्ष की दूसरी शाखा है । आचार्य महाप्रज्ञ' ने इस मत की संभावना की है कि पकुधकात्यायन के कुछ अनुयायी केवल पंच महाभूतवादी थे । वे आत्मा को स्वीकार नहीं करते थे । उसके कुछ अनुयायी पांच भूतों के साथ-साथ आत्मा को भी स्वीकार करते थे । वह स्वयं आत्मा को स्वीकार करता था । अन्तर इतना ही है कि वह आकाश के अस्तित्व को स्पष्ट स्वीकार करता है और सुख - दुःख का विचार छोड़ देता है । पकुधकात्यायन भूतों की भांति आत्मा को भी कूटस्थनित्य मानता था ।
आत्मषष्ठवादियों के मत में........ सत् का नाश नहीं होता, असत् का उत्पाद नहीं होता। इतना ( पांचमहाभूत या प्रकृति) ही जीवकाय है । इतना ही अस्तिकाय है। इतना ही समूचा लोक है । यही लोक का कारण है और यही सभी कार्यों में कारणरूप में व्याप्त है । अन्ततः तृणमात्र कार्य भी उन्हीं से होता है (सूत्रकृतांग, II.1.27 [381])।
जैकोबी तथा अमूल्यचन्द्र सेन ने इस मत को बौद्ध स्रोतों के आधार पर पकुध के साथ सम्बद्ध किया है। साथ ही जैकोबी ने इसे चरक का भी मत बताया है।' चरक एक प्रकार के परिव्राजक हैं, जो सांख्य साधक थे।
पकुध ने सात प्राथमिक पदार्थों को कूटस्थ नित्य रूप में स्वीकार किया, जो न उत्पन्न हुए, न उत्पन्न कराए गये। यह सत्कार्यवाद के समान लगता है । सुख-दुःख से आत्मा की पृथकता तथा आत्मा और पदार्थ की अन्योन्याश्रित क्रिया की अस्वीकृति को अभिव्यक्त करने वाले सांख्यदर्शन की स्मृति कराता है तथा बहुत पदार्थों को मानने का सिद्धान्त वैशेषिक दर्शन की पुष्टि करता है । '
1. सूयगडो, I. 1. 15-16 का टिप्पण, पृ. 35.
2. (i) Hermann Jacobi, Sutrakrtānga, Vol. XLV, Introduction, p. XXIV.
(ii) Amulyachandra Sen, Schools and Sects in Jaina Literature (as printed in Prolegomena to Prakritika et Jainica, p. 94.
3. Hermann Jacobi, Ibid, p. 237.
4. K.C. Jain, Lord Mahāvīra and His Times, p. 158.